SUNO.....
- Vishwa

- Mar 1, 2022
- 12 min read
Updated: Apr 27, 2022
पॉडकास्ट आखिर क्यों ? आज जब मोबाइल डाटा काफी सस्ता हो गया है, तब लोगों का बहुत सा समय YOUTUBE देखते हुए ही बीत रहा है | YOUTUBE पहले भी लोग देखते थे, पर डाटा मँहगा था, तो थोड़ा सावधान रहते थे, थोड़ा भी लिमिट ओवर हुई और हजारों का बिल हाजिर | इसीलिए OTT का वजूद बहुत सीमित था | अब पिछले पाँच – छह सालों में आई इंटरनेट क्रांति ने बहुत कुछ बदल दिया | वीडियो देखना जीवन का एक अंग बन चुका है, या यूँ कहें सबसे महत्वपूर्ण अंग | जरा सा खाली हुए नहीं कि YOUTUBE चालू | एक वीडियो देखने जाएँ तो उससे जुड़े ढेरों SUGGESTED वीडियो दिखने लगते हैं और होता ये है कि आदमी एक के बजाय ढेरों वीडियो देख डालता है |
समय कैसे निकल जाता है, पता ही नहीं चलता और बहुत से जरुरी काम ऐसे ही रह जाते हैं | और भी बहुत सी समस्याएँ हैं, जब हम लगातार आँखों, दिमाग और मन को वीडियो में लगाये रखते हैं तो धीरे धीरे ये अंग स्लो पड़ने लगते हैं, आँखों में जलन, कम दिखाई देना इन सब समस्याओं से तो सब परिचित ही होंगे | सर में दर्द भी होने लगता है और नींद भी सही से नहीं आती |
हम सबने अनुभव किया होगा कि अब पहले की तरह गहरी नींद नहीं आती, बीच – बीच में खुलती रहती है और उठने के बाद भी थकान सी लगी रहती है | ये सब इन्हीं वीडियो का परिणाम है | एक के बाद दूसरा उसके बाद तीसरा फिर कुछ समझ न आये तो ऐसे ही स्क्रॉल करते रहना कि शायद कुछ और बढियाँ मिल जाय, और इतना ही नहीं WHATSAPP और फेसबुक अलग से, यूँ कहें हमें लत लग गयी है और लत कोई भी, कैसी भी क्यों न हो, जल्दी छूटती नहीं |
तो समय के भीषण दुरुप्रयोग के साथ – साथ अपने शरीर का, जो अमूल्य है, उसका भी हम अमूल्य शोषण और दुरुप्रयोग कर रहे हैं, और वो भी पूरी जागरूकता के साथ | और बड़ी बात तो ये है कि इनमें से बहुत से वीडियो बस ऐसे होते हैं कि उन्हें बस सुना जा सकता है, देखने की तो कोई आवश्यकता ही नहीं | जैसे कि कोई सतसंग या कथा कहानी के वीडियो जो अमूमन बहुत लम्बे होते हैं, उन्हें देखने की क्या जरुरत ? क्यों बेकार में अपनी ऑंखें खराब की जाएँ और नींद बर्बाद |
अब जैसे आप किसी प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु के ही वीडियो ले लें वे एक कुर्सी पर बैठे हैं और एक घंटे के एपिसोड में 55 मिनट कैमरा उनके मुख की ओर ही रहता है, ऑडियंस को कभी – कभार ही दिखाया जाता है और एंकर को तब, जब वो सवाल करता है | तो मतलब ये एक पूर्णतः सुनने वाला ही वीडियो है जिसे हम जबर्दस्ती देख रहे हैं और अपनी ऑंखें बर्बाद करते हैं, उसके बाद होने वाला सिर दर्द अलग और फिर सही नींद न आना तो है ही | पर हम बस यहीं नहीं रुकते, और भी बहुत से वीडियो देख डालते हैं और आज जो परेशानी हुई सो हुई, कल भी नींद सही न आने से होने वाली थकान और चिडचिडापन अलग | पर हम तो ख़राब मन को ठीक करने के लिए फिर एक ऐसा ही वीडियो खोल कर बैठ जाते हैं | इसके अलावा और भी वीडियो हैं जैसे किसी का भाषण ही ले लें उसे भाई देखने की क्या आवश्यकता ? बस सुनने से ही काम बन जाता है पर हम हैं कि देखेंगे और दूसरों को भी दिखाएँगे | और मुझे ऐसा लगता है कि हम जितने भी वीडियो देखते हैं उनमें से 15 से 20 % वे अवश्य होते हैं जिन्हें बस सुना जा सकता है, देखने की कोई जरूरत नहीं और वो भी आपके टेस्ट पर डिपेंड करता है क्योंकि youtube अपने आप आपको वैसे ही वीडियो suggest करने लग जाता है | तो कुछ लोगों के लिए ये percentage 50 तक भी जा सकता है |
तो क्यों न उतने ही प्रतिशत को बस सुन के काम चला लिया जाय ? रेडियो तो सबने सुना होगा | न्यूज़ बुलेटिन से लेकर हवा महल तक हम सुन के मनोरंजन कर लेते थे | रात का समय होता था इन्हीं के साथ खाना होता था, फिर जवानों के लिए संगीत और फिर बढियाँ नींद | कहने का मतलब ये है कि जिस चीज के लिए कान देना है, उसके लिए हम आँख क्यों दे रहे हैं ? फिर शरीर तो खराब होगा ही |
आप स्वयं भी प्रयोग करके देख सकते हैं जैसे कोई आध्यात्मिक चर्चा या प्रसंग ही देख रहे हैं, तो मोबाइल पास में रख कर बस सुनने लगिए और आनंद को महसूस करिए | एक दम से आप अनुभव करेंगे कि बात कुछ गहराई में उतर रही है, विषय – वस्तु की गंभीरता बढ़ने लगी है और एक शांति का एहसास होने लगा है | और सबसे बड़ी बात तो ये कि अगर रात के समय आप ऐसे वीडियो देखते हैं तो आप उन्हें सुनकर देखें, आपने यदि एक ही एपिसोड सोचकर वीडियो चलाया था तो एक ही एपिसोड ध्यानपूर्वक सुनकर आप गहरी नींद में सो जायेंगे, बात भी आपके अन्दर उतरेगी और अगले दिन आप स्फूर्ति का अनुभव करेंगे |
तो हमारे स्वयं की शारीरिक और मानसिक सेहत के लिए सुनना हमेशा देखने से ज्यादा अच्छा रहता है और खासकर वो चीज जिसे बस सुनने से ही काम हो सकता है, जिसे देखने की आवश्यकता हो उसे तो हम देखते ही हैं पर दिक्कत ये है कि न देखने वाली चीजों को भी देखकर जबर्दस्ती सर दर्द बढ़ा लेते हैं तो कोशिश यही होनी चाहिए कि देखने का प्रतिशत घटाया जाये |
हममें से कितने ही पर्यावरण को लेकर चिंतित रहते हैं, खासकर अपने देश भारत में | यहाँ तो इसको लेकर शायद ही कभी कोई सार्थक चर्चा होती हो | मीडिया डिबेट में तो आपने कभी कोई चर्चा सुनी ही नहीं होगी बस अख़बारों, पत्रिकाओं में कुछ लेख ही पढ़े होंगे | जागरूक लोग इन्टरनेट पर जाकर वे वेबसाइट और ब्लॉग पढ़ते हैं, जो पर्यावरण से सम्बंधित होते हैं | youtube भी ऐसी महत्वपूर्ण जानकारियों से भरा पड़ा है, और ऐसे अच्छे वीडियो हमें अवश्य ही देखने और सुनने चाहिए | अब फिर वही बात आती है कि इनमें से बहुत से वीडियो ऐसे हैं कि जिन्हें बस सुना जा सकता है, पर कोई बात नहीं ये अच्छे वीडियो हैं इन्हें देखें या सुनें, हमें जागरूक ही करते हैं | अब पर्यावरण की बात यहाँ पर ऐसे आयी कि जब हम वीडियो देखते हैं तो बहुत बड़ी मात्रा में डाटा consume करते हैं | जब वीडियो बनाते हैं तो भी बहुत बड़ी फाइल बनती है और बड़े स्टोरेज की जरूरत पड़ती है | तो इनको स्टोर करने के लिए दुनिया की नामी कंपनियों ने डाटा सेंटर बनाये हैं, और एक नहीं बल्कि बहुत से बनाए हैं, जो दुनिया के अलग – अलग हिस्सों में हैं | ये डाटा सेंटर ही सारा डाटा स्टोर करते हैं और फिर जरूरत के माध्यम से प्रोसेस करते हैं |
अब जो वीडियो अधिक पोपुलर हो जाते हैं, वे कंटेंट डिलीवरी नेटवर्क के माध्यम से प्रोसेस करे जाते हैं ताकि वे आप तक जल्दी पहुँचें | आज youtube पर ही हर मिनट 500 घंटे के वीडियो अपलोड होते हैं, बाकी सोशल मीडिया websites जैसे फेसबुक, इन्स्टाग्राम को भी अगर ले लें , तो आप समझ लीजिये कि इन डाटा सेंटर की कैपेसिटी कितनी है और इनमें किस क्षमता की हार्ड डिस्क लगी रहती हैं और फिर इन सब को रन करने में कितनी ऊर्जा की खपत होती होगी | कुछ आंकड़े जो मैंने बहुत प्रतिष्ठित जर्नल, समाचारपत्रों और इन्टरनेट के आर्टिकल्स से लिए हैं वे आपके सामने रखता हूँ :-
सबसे पहले बाइट पर कुछ बात कर लेते हैं :
हम सब जानते हैं कि 1 Megabyte (Mb) = 106 = 10 lakh bytes
1 Gigabyte (Gb) = 1000 Mb = 109 bytes
1 Terabyte (Tb) = 1000 Gb = 106 Mb =1012 bytes
1 Petabyte (Pb) = 1000 Tb = 109 Mb =1015bytes
1 Exabyte (Eb ) = 1000 Pb = 1012 Mb = 1018 bytes
1 Zetabyte ( Zb ) = 1000 Eb = 1015 Mb = 1021 bytes
1 Yottabyte (Yb) = 1000 Zb = 1018 Mb = 1024 bytes = 1000,000,000,000,000,000,000,000 bytes = 24 O after 1. और ये कैपसिटी लगातार बढ़ती ही जा रही है |
अगर रोज आप 100 मिनट का भी वीडियो अपलोड youtube पर मान लें तो ये लगभग 190 gb/मिनट या 270 टेरा बाईट / डे या 93 पेटा बाईट/ ईयर होता है, मतलब 93,000 tb,या 9 करोड़ 30 लाख gb सालाना | अब हम लोग जो घरेलू उपयोग के लिए हार्डडिस्क लेते हैं वे अधिक से अधिक 1 tb या 1000 gb की होती हैं, तो आप अनुमान लगा सकते हैं कि कितनी बड़ी मात्रा में हर साल डाटा स्टोर होता है, कितनी हार्ड डिस्क खरीदनी पड़ती हैं और सर्वर चलाने में कितनी ऊर्जा की खपत होती होगी |
और ये सब अनुमान भी बड़ी उदारता के साथ लगाया गया है | और बड़ी बात ये सारे डाटा एक से अधिक सर्वर और हार्डडिस्क पर स्टोर होते हैं जिससे बैकअप बना रहे सामान्यतः पोपुलर वीडियो तो पांच से लेकर दस तक डाटा सेंटर पर रहते हैं, तो अब स्टोरेज कैपेसिटी का अनुमान लगाना दिमाग से परे लगता है | और ये तो हुई बस youtube की बात, अब इसके साथ फेसबुक और इन्स्टाग्राम अलग से ? तो सब का हिसाब कौन लगा सकता है, चलिए मानलें किसी ने लगा भी लिया तो अब ये बताएं कि आज कल क्या चल रहा है ? चलिए मैं ही बता देता हूँ चल रहा है ओटीटी | मतलब ओवर द टॉप |
हॉटस्टार, नेटफ्लिक्स, अमेज़न प्राइम, जी फाइव, और और और मतलब बहुत से और | खैर आपकी जानकारी तो और ज्यादा होगी | म्यूजिक भी सर्वर से ही आजकल सब्सक्रिप्शन बेस हो गया है, तो सही ये है कि आप ऑफलाइन डाउनलोड कर सुनें | पर वीडियो फाइल और ऑडियो की कोई तुलना ही नहीं है | तो फिर ये सारी वीडियो सर्विसेज इतना भारी – भरकम डाटा वो भी बैकअप के साथ और कई – कई सर्वर जो दुनिया के कई – कई देशों में हैं उन्में स्टोर कर रखती हैं कि बस ये कहा जा सकता है कि इसका कोई पार नहीं ये अथाह है |
अब बात को थोड़ा गहराई में ले जा सकते हैं, बीबीसी की एक रिपोर्ट के कुछ डाटा रखता हूँ :
सिर्फ इन्टरनेट और इसके सहायक सिस्टमों द्वारा ही उत्सर्जित हुई ग्रीनहाउस गैसेस, पूरी दुनिया के कार्बन उत्सर्जन का लगभग 4 % हैं | ये एयरलाइन इंडस्ट्री द्वारा छोड़े गए साल भर के उत्सर्जन के बराबर है | और ये आंकड़े लगातार बढ़ ही रहे हैं | इसके अनुसार हम से हर कोई हर साल लगभग ४०० किलो कार्बन डाईऑक्साइड सिर्फ इन्टरनेट एक्टिविटी के लिए ही छोड़ रहा है | समझने की बात ये है इसका बड़ा चंक डाटा सेंटर को मेन्टेन और चलाने से आता है | अब अमेरिका में ही पूरी बिजली खपत का २ % तो सिर्फ इन्हीं डाटा सेंटर को चलाने में आता है |
और बिजली का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी फॉसिल फ्यूल या कोयले और नेचुरल गैस से बन रहा है, जिनके लिए खनन करना पड़ता है जो अपने आप में पर्यावरण को बहुत प्रदूषित करता है, फिर बिजली बनाने के लिए इन्हें जलाना भी पड़ता है, जिससे ग्रीन हाउस गैसेस निकलती हैं |
अब एक बहुत बड़ी बात जो अधिकतर अनदेखी कर दी जाती है, वो है जल्दी – जल्दी गैजेट बदलना | अब आप बताएं बिना किसी बड़े अपग्रेड के हर साल iPhone, pixel, गैलेक्सी सीरीज, वन प्लस और दुनिया भर के अनगिनत मोबाइल को निकालने की क्या जरूरत ? ये कितनी बड़ी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसेस उत्सर्जित करती हैं और वातावरण पर इनका क्या प्रभाव पड़ता है ये मैं आगे बताता हूँ | हम आराम से मोबाइल को तीन साल तक चला सकते हैं और लैपटॉप और पीसी पांच से छह साल आराम से चलते हैं और यदि ऐसा किया जाय प्रति व्यक्ति सिर्फ कंप्यूटर से ही 200 kg/ईयर co2 बचा सकता है |
अब हम जाने अन्जाने बहुत से ईमेल भी भेजते रहते हैं, सिर्फ अगर थैंक्यू और सब्सक्रिप्शन वाले ईमेल ही सिर्फ इंग्लैंड में लोग भेजना बंद कर दें तो 16,450 टन कार्बन उत्सर्जन कम हो सकता है | पूरी दुनिया का तो बस अनुमान लगाया जा सकता है | हर किसी को अटैचमेंट भेज कर मेल बड़ा करने से अच्छा है कि कोई कॉमन लिंक भेज कर उसे वहीँ से प्राप्त कर लिया जाय | तो कहने का मतलब है कि ये छोटी – छोटी चीजें हैं जो बहुत बड़ा प्रभाव डाल सकती हैं |
अब एक रोचक बात बताता हूँ जो शायद ही आपने सोची हो और वो है क्रिप्टो करेंसी | उनके जटिल कंप्यूटर अल्गोरिथिम को चलाने के लिए बहुत पॉवर की जरूरत पड़ती है | अभी हाल ही के एक शोध के अनुसार केवल बिटकॉइन के सर्वर ही 220लाख टन कार्बन हर साल उत्सर्जित करते हैं, बाकी का तो पता ही नहीं |
पहले जब हम बोर होते थे तो रेडियो बजा लेते थे, किसी के घर चले जाते थे, कुछ लोग हों तो बैठ कर पत्ते ही खेल लेते थे, पर अब आज के समय में ये सब बंद हो गया है, अब तो मोबाइल उठाया और वीडियो चालू | और पूरे इन्टरनेट ट्रैफिक का 60% ये वीडियो ही हैं और लगभग 30 करोड़ टन CO2 का उत्सर्जन करते हैं जो मोटा मोटा कुल ग्रीन हाउस उत्सर्जन का 1% है | कोई बड़े हिट वीडियो जो कि करोड़ों बार देखे जाते हैं उनका अकेले का ही उत्सर्जन ढाई लाख टन के आस – पास होता है | अगर वीडियो ऑटो प्ले ऑफ हो जाएँ और कुछ कम क्वालिटी का वीडियो चलाया जाय तो भी बड़ा फर्क पड़ सकता है | कुछ लोग तो वीडियो चलाकर सो जाते हैं और एक के बाद एक ये चलते रहते हैं और कुछ लोग तो रात में सोने के लिए भी इन्हें चलाते हैं पर मुझे नहीं लगता इससे नींद आती है, बल्कि जाती है, हाँ ऑडियो से जरूर नींद आती है | स्ट्रीमिंग के लिए wifi का उपयोग कम पॉवर की खपत करता है |
अब बात करते हैं मोबाइल फ़ोन की, जो हमें बताया, दिखाया और समझाया जाता है कि दो साल में ही पुराने हो जाते हैं और जरूर अपडेट करने चाहिए | आज दुनिया में लगभग 35 से 40 करोड़ लोग स्मार्टफोन यूज़ करते हैं या यूँ कहें जिन्हें आप हाथ में लिए हैं वे सब पृथ्वी के अनमोल खनिज हैं जो पूरी दुनिया से निकाले जाते हैं | अब इन फ़ोन के फैक्ट्री में बनने की शुरुआत ही सबसे ज्यादा चिंता का कारण है क्योंकि हर डिवाइस का 80 % कार्बन फुटप्रिंट उसके निर्माण के दौरान ही होता है | ये खनन, उत्कर्षण अर्थात रिफाइनिंग, परिवहन और फिर इन सब की असेंबली | आयरन ( लोहा ) स्पीकर और माइक्रोफोन के लिए, एल्युमीनियम और मैग्नीसियम फ्रेम और स्क्रीन के लिए, कॉपर, सिल्वर और गोल्ड इलेक्ट्रॉनिक सर्किट के लिए, ग्रेफाइट और लीथियम बैटरी के लिए, सिलिकॉन प्रोसेसर के लिए और लेड और टिन सोल्डरिंग के लिए | और इन सब के लिए बिजली की आवश्यकता पड़ती है जिसका उत्पादन आज भी फॉसिल फ्यूल या खनिज तेल, गैस इनके प्रयोग से अधिक होता है, तो ये अपने आप में बड़ा पर्यावरण संकट है |
ये जो खनिज तत्व बताए गए इन्हें प्रायः हमने सुना होगा व् जानते होंगे पर मोबाइल में बस इतने से ही काम नहीं चल जाता | लगभग हर मोबाइल में 16 से 17 दुर्लभ खनिज पदार्थ भी प्रयोग में आते हैं | जैसे निओडीमियम, तटेर्बियम जो बहुत अल्प मात्रा में दुनिया भर में फैले पड़े हैं और चीन इनका मुख्य आयातक है | जिससे अनावश्यक परिवहन होता है और कार्बन फुटप्रिंट बढ़ता है |
इसके अलावा उत्कर्षण अर्थात रिफाइनिंग प्रोसेस पर्यावरण को कितना नुकसान पहुँचाता है, ये हमें पता ही है | अब फ़ोन्स की रीसाइक्लिंग भी तो नहीं होती | विकसित देशों में ही इसका प्रतिशत बस 15 है, अविकसित में तो न के बराबर है | तो ये सब कबाड़ में जाकर कहीं बहुत बड़ी जगह में डंप कर दिए जाते हैं या सागर में समा जाते हैं और इनके बेहद ही टॉक्सिक तत्व जैसे निकल. लेड, क्रोमियम, कैडमियम, मरकरी इत्यादि धरती – जल दोनों को बुरी तरह प्रदूषित कर देते हैं |
अब यूरोप में ही 90 % वे मोबाइल बदले जाते हैं जो अभी भी अच्छी तरह से काम कर रहे होते हैं | नए मोबाइल की मार्केटिंग ही कुछ ऐसी है कि बड़े प्रॉफिट के लिए कंपनियाँ अपने ही फ़ोन हर साल बदल देती हैं और लोग भी अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण न रख पाने के कारण बढियाँ काम कर रहे अपने सालभर पुराने फ़ोन को बदल देते हैं | ऐसे लोग भारत में कम हैं पर हैं जरूर और जब आबादी इतनी बड़ी हो तो फिर समझ जाइए | अब ये कम्पनियाँ इसके माध्यम से क्या ये साबित करना चाहती हैं कि हमने बहुत बेकार मोबाइल बनाये, जो साल भर से ज्यादा नहीं चलेंगे ? या पिछले मोबाइल में तो कुछ अच्छा था ही नहीं इसलिए नया बनाना पड़ा |
अब डाटा तो बहुत से और बहुत सारी चीजों के हैं पर ये आर्टिकल या पॉडकास्ट बहुत लम्बी खिंच जाएगी | इतनी देर के बाद क्या आपको मेरे इस सबसे पहले एपिसोड का नाम याद है ? फिर बता देता हूँ |
“पॉडकास्ट आखिर क्यों ?” “ Podcasting Why?” इसीलिए की हम जहाँ पर जितना कम कर सकते हैं उतना तो करें | जहाँ जिसकी जितनी जरूरत है उतना तो उसे करना ही पड़ेगा, थोड़ा ज्यादा सेंसिटिव होंगे तो थोड़ा ज्यादा मदद पर्यावरण को मिलेगी, थोड़ा ज्यादा रीसायकल करेंगे तो संसाधन अधिक लम्बे चलेंगे और पर्यावरण अधिक स्वच्छ रहेगा | इसीलिए ये पॉडकास्ट क्योंकि यहाँ मैं वीडियो बनाता तो काम नहीं करता, या करता भी तो क्या मतलब, मुझे तो बस बोलकर थोड़ी जागरूकता फैलानी थी और ऐसे ही अनगिनत वीडियो youtube पर हैं जो बस अगर ऑडियो होते तो शायद पृथ्वी थोड़ी कम गर्म होती, थोड़े ग्लेशियर कम पिघले होते, थोड़ी आपदाएं कम आयी होतीं, नींद थोड़ी और अच्छी आती, मन थोड़ा और अधिक शांत होता, ये शांत मन वायरस न फैलाते, और शायद थोड़ी कम राजनीतिक नौटंकी होती |
“ रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून | पानी गए न ऊबरै; मोती, मानुष, चून ||” अर्थ कभी किसी और प्रसंग में बताऊँगा |
जय भारत |
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