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​श्रीखण्ड महादेव

हिमालय की पर्वत मालाएं युगों – युगों से मानव को अपनी ओर आकर्षित करती आयी हैं, यह पवित्र एवं दिव्य भूमि हमारे ऋषियों मुनियों की तपस्थली भी रही है, हमारे सभी प्रमुख तीर्थ स्थल भी यहीं स्थित हैं, यहाँ कण कण और पग पग में दिव्यता है, वायु अलौकिक स्पंदनों से पूर्ण है एवं वातावरण अदभुत् है और सबसे बढ़कर यह भगवान भोलेनाथ का धाम है |
हिमालय में पांच कैलाश हैं; कैलाश मानसरोवर, आदि कैलाश, श्रीखंड कैलाश, किन्नौर कैलाश और मणि महेश | किन्नौर, श्रीखंड और मणिमहेश हिमांचल में और आदि कैलाश उत्तराखंड में स्थित है, कैलाश मानसरोवर तिब्बत में है | कैलाश मानसरोवर की यात्रा जहाँ अपेक्षाकृत लम्बी है, वहीँ किन्नौर एवं श्रीखंड की यात्राएं तीन से चार दिन में हो जाती हैं पर उतनी ही कठिन हैं, आदि कैलाश की यात्रा लगभग १० दिन में पूरी होती है, ये भी काफी चुनौतीपूर्ण है, मणिमहेश इनमे से सबसे छोटी और अपेक्षाकृत आसान यात्रा है जो लगभग दो दिनों में पूरी होती है |

भगवान की कृपा से मुझे २०१४ में कैलाश मानसरोवर जाने का अवसर मिला, २५ दिन की ये यात्रा अपने आप में अदभुत एवं रोमांचित करने वाली थी, पृकृति के वे अनुपम दृश्य आज भी आखों में वैसे ही बसे हैं, ऐसे ही और दृश्यों का पान करने की इच्छा से और भगवान के आशीर्वाद से  मैंने २०१६ में श्रीखंड जाने का निर्णय किया |  

लगभग १८५०० फुट की ऊंचाई पर स्थित, ७० फीट ऊँचे शिवलिंग के दर्शन करने के लिए आपको पहले रामपुर पहुंचना होगा जो कि शिमला से १३५ किमी है, शिमला से रामपुर के लिए लगभग हर घंटे बस मिलती है, यहाँ से ३५ किमी आगे जाओं गाँव तक जाना होता है, जहाँ शेयर्ड जीप – कार से जाया जा सकता है, जाओं से तीन किमी तक ट्रेक करके हम सिंघाद पहुँचते हैं जो यात्रा का बेस कैंप है |

यात्रा श्रीखंड यात्रा कमिटी द्वारा हर साल जुलाई में आयोजित की जाती है, यात्रा का समय लगभग १५ दिन का होता है, वैसे आप इसके कुछ पहले या बाद भी जा सकते हैं, पर यात्रा के समय जाने से खाने, टेंट, और पोर्टर आदि की सुविधा रहती है, और रास्ते में काफी चहल – पहल रहती है |

वैसे तो लखनऊ से चंडीगढ़ के लिए सीधी ट्रेन है, पर मैं किन्ही कारणवश बहार था, वहाँ से ऊंचाहार एक्सप्रेस पकड़कर चंडीगढ़ पहुंचा, ट्रेन थोड़ी लेट हुई और मुझे चंडीगढ़ पहुँचते- पहुँचते दोपहर हो गयी | यहाँ से ISBT आकर मैंने शिमला के लिए बस ली और शाम के 7 बजे मैं शिमला पहुँच गया | यहाँ कुछ खा पीकर इन्क्वायरी की तो पता चला रामपुर के लिए अगली बस रात में 8 बजे और 10 बजे है, जो लगभग 5 घंटे लेती हैं, अब मैं कंफ्यूज हो गया पहले तो रात का सफ़र, वो भी पहाड़ों पर, और जब बस रात में १-२बजे पहुंचेगी तो पता नहीं वहां कोई होटल मिलेगा या नहीं, क्योंकि रामपुर छोटा सा शहर है |

ISBT शिमला से ५-६ किमी है, और यहाँ आस – पास कोई बजट होटल भी नहीं है, और एक मात्र होटल सी के इंटरनेशनल है, जो बहुत महंगा है, एक आप्शन ये था कि शिमला पहुँच कर कोई बजट होटल लिया जाये और सुबह सुबह ४-५ बजे की बस पकड़कर रामपुर पहुंचा जाये, और वहां से दोपहर तक जाओं या सिंघाद पहुँच कर आराम किया जाये और अगले दिन से यात्रा शुरू की जाये, यही सब मन ही मन सोचते हुए मैं रामपुर साइड जाने वाले बस प्लेटफोर्म के पास आकर टहलने लगा | अँधेरा हो गया था, हवा में ठण्ड बढ़ने लगी थी, और मुझे जल्दी ही कोई निर्णय लेना था, तभी मेरी नज़र एक हम उम्र लोकल लड़के पे पड़ी जो काउंटर पर रामपुर की बस टिकट के लिए इन्क्वायरी कर रहा था, अभी ८ बजे की बस की टिकट मिलने में कुछ देर है, मैंने पास जाकर पता किया, लड़का रामपुर से ही है, और उसने बताया की ८ बजे की बस रात में 1 बजे पहुँचती है, सड़क ठीक है और यहाँ रात भर बस चलती हैं |

मैंने भी सोचा की यहाँ वहाँ भटकने से अच्छा है, बस पकड़कर रामपुर चला जाये, शायद बस स्टैंड के आस पास कोई होटल मिल जाये और अगले दिन सुबह सुबह सिंघाद पहुँच कर यात्रा आरंभ की जाये | टिकट लेकर हम दोनों बस में बैठ गए, बस काफी भरी है और हमें पीछे की सीट मिली, उसने बताया की 8 बजे की बस में सबसे जादा भीड़ भाड़ रहती है क्योंकि बाहर से आने वाले लोगों को शिमला पहुँचते- पहुँचते रात हो जाती है, और इसमें रामपुर से लेकर रेकोंग पियो तक के लोग चढ़ते हैं, जिनमे से ज्यादातर बाहर से आने वाले कारीगर, मजदूर आदि हैं |

लगभग 11 -11:30 बजे बस रास्ते में एक जगह खाने के लिए रुकी, एक तो दिन भर की थकावट, उपर से टेढ़े मेढ़े पहाड़ी रास्ते, और पीछे की सीट, मेरी कमर और पीठ अब जवाब दे रही थी, इसलिए भूख के बावजूद मैं खाना खाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया और इधर उधर टहलने लगा | लगभग एक - सवा घंटे पहले जब बस नारकंडा से गुजरी थी तो काफी ठण्ड थी, वैसे मैंने शिमला से बस में चढ़ते ही जैकेट डाल ली थी, कि पता नहीं रात में कितनी ठण्ड हो, पर भीड़ - भाड़ और बस बंद होने के कारण जादा ठण्ड महसूस नहीं हुई, और यहाँ तो न के बराबर ठण्ड है, शायद ये जगह ज्यादा ऊंचाई पर नहीं है |

बारह बजे के आस – पास, खा - पीकर ड्राईवर साहब ने बस आगे बढ़ाने की सोची, मैंने होटल के बारे में हरिबंश  से पूछा | हरिबंश  रामपुर के पास किसी गाँव का है, और दिल्ली में एक NGO में काम करता है, उसका रामपुर में भी ऑफिस है, उसने बताया कि होटल बस स्टैंड से थोड़ा दूर हैं, और ज्यादा बड़े नहीं हैं, रात में रूम मिलना भी थोड़ा मुश्किल है, इससे अच्छा है कि मै उसके साथ ऑफिस में ही रुक जाऊं, बिना ज्यादा सोचे विचारे मैंने भी हाँ कर दी |

थोड़ी देर के बाद कानों में पास ही बहती नदी की कल कल ध्वनि सुनाई पड़ी, ये सतलुज नदी है, जो रामपुर के बीचों – बीच से गुज़रती है, लगभग 1 बजे के आस पास, बस स्टैंड से कुछ दूर पहले हमने बस छोड़ दी | सतलुज के उपर बने एक पैदल पुल को पार कर, 10-15 मिनट चलने के बाद हम ऑफिस पहुँच गए, ये दरअसल एक तीन-चार कमरे का मकान है, एक कमरा ऑफिस में कन्वर्ट किया हुआ है और बाकी दो सोने में यूज़ होते हैं, किचन, बाथरूम सब है |

मैंने हरिबंश .. को मदद के लिए धन्यवाद दिया, आज के समय में ऐसे लोगों का मिलना किसी सौभाग्य से कम नहीं है, थोड़ी देर बात चीत करके, डेढ़ बजे के आस पास मैं सो गया | सुबह जब आँख खुली तो 6 बज चुके थे, और कल की थकान पूरी तरह से उतर चुकी थी, जल्दी से फ्रेश होकर मैं तैयार हो गया, तब तक    चाय बना लाया, वापस सतलुज को पार कर पैदल बीस मिनट चलने के बाद हम पुराने बस स्टैंड पहुँच गए, रास्ते में दो लोकल लड़के और मिले, वो भी श्रीखंड जा रहे थे | अभी जाओं के लिए कोई बस नहीं है, हम तीनों लोग एक बोलेरो वाले से बात करने लगे, तभी वहां चार – पांच लोग और पहुँच गए और हमने पूरी टैक्सी बुक कर ली | हरिबंश .. से विदा लेकर और फिर मिलने की सोचकर, मैं जीप में बैठ गया |

भस्मासुर की कथा तो सबने सुनी ही होगी , भगवान शंकर से वरदान प्राप्त कर वो उन्हें ही भस्म करने को आतुर हुआ तब भगवान विष्णु ने प्रकट होकर उसका हाथ उसके ही सर पर रखा दिया जिससे वो भस्म हो गया, उसी असुर से बचने के लिए भगवान देवदंडक नामक स्थान से एक गुफा में प्रविष्ट हुए और अन्दर ही अन्दर श्रीखंड में प्रकट हुए कहते हैं इससे वो शिला खंडित हो गयी और श्रीखंड कैलाश के रूप में प्रसिद्ध हुई |

थोड़ी देर के बाद हम  देवदंडक पहुँच गए , ये वही गुफा है जहाँ से भोलेनाथ प्रविष्ट होकर, श्रीखंड में प्रकट हुए थे, गुफा का द्वार संकरा है, और अन्दर एक शिवलिंग है, पुजारी बाबा ने वो रास्ता भी दिखाया जिससे भोलेनाथ श्रीखंड में प्रकट हुए थे, ये देखने में बहुत ही संकरा और दुर्गम प्रतीत होता है, आशीर्वाद लेकर हम बाहर  आ गए, परिसर में ही आश्रम है, यहाँ दाल चावल खाकर हमने आगे प्रस्थान किया, वैसे पहाड़ों पर बेल वृक्ष मिलना दुल्लभ है, पर आस पास बहुत से पेड़ थे, जहाँ से हमने भगवान को अर्पित करने के लिए बेल पत्र लिए, और 10 बजे के आस पास हम जाओं पहुँच गए |

रामपुर से लगभग 35 किमी दूर, जाओं छोटा सा गाँव है, यहाँ से प्रसाद आदि लेकर हमने अपनी यात्रा आरंभ की | जैसे ही हम जाओं पहुंचे, बारिश  चालू हो गयी, और सिंघाद तक बूंदा बांदी होती रही उसके बाद धूप निकल आयी | सिंघाद तक 3 किमी का लगभग लेवल ट्रेक है , और आराम से एक घंटे में पहुंचा जा सकता है | यहाँ रजिस्ट्रेशन और मेडिकल वगैरह होता है, वैसे मेडिकल के नाम पे बी.पी. चेक होता है और आपसे एक फॉर्म भरवाया जाता है, यात्रा कठिन है और ये सलाह दी जाती है कि पूरी तरह फिट होने पर  ही आप आगे प्रस्थान करें | यहाँ खाने पीने और चाय नाश्ते की बढियां व्यवस्था है, चाय – पकोड़े खाकर और  भगवान भोले का नाम लेकर हमने अपनी यात्रा प्रारंभ की |

सुबह के साढ़े दस बज चुके हैं, और अभी ज्यादा लोग नहीं दिख रहे हैं, वैसे भी सिंघाड़ में रुके हुए लोग सुबह ही थाचरू के लिए निकल जाते हैं, और हमारे जैसे पीछे से आने वाले लोग ज्यादा नहीं होते हैं | मेरे कन्धों पर लगभग 11-12 किलो का पैक है, भराथी नाले का लगभग 3 किमी का संकरा रास्ता है जो कुर्पन नदी के साथ – साथ चलता है, रस्ते में २-3 जगह तीखे खतरनाक मोड़ और बिल्कुल खड़ी, पतली सीढियाँ हैं, जहाँ पूरे ध्यान से उतरना पड़ता है, इसके बाद नाले तक रास्ता लगभग समतल है |

भराथी नाला, असल में कुर्पन पार करने के लिए बने पुल वाले स्थान का नाम है, जो कि लगभग 1200-1400 मीटर की ऊंचाई पर है | यहाँ लगा साइन बोर्ड बताता है की 3500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित थाचरू तक पहुँचने के लिए अभी 9 किमी की चढ़ाई चढ़नी होगी | ये पढने के बाद मैं कुछ सोच में पड़ गया, एक तो यहाँ तक आते आते 12 बज चुके थे, और 9 किमी में 2300 मीटर की ऊंचाई मतलब एकदम सीधी चढ़ाई; हर 1 किमी में 250 मीटर का हाइट गेन, वो भी ट्रेक के स्टार्ट में ही, समझ में आ गया कि ये यात्रा इतनी कठिन क्यों मानी जाती है | इसके साथ ही साथ मेरे लिए एक चिंता की बात और थी; असल में अपने ट्रेकिंग एक्सपीरियंस से मैं समझ गया कि मैं शाम सात – साढ़े सात बजे से पहले थाचरू नहीं पहुँच पाऊँगा, और मैंने पढ़ा हुआ था कि ये बहुत बड़ा हाल्ट नहीं है और यहाँ पर टेंट्स लिमिटेड ही हैं, और शाम होते होते ये फुल हो जाते हैं; खैर ये सब चिंता छोड़ और भगवान भोले का नाम लेकर मैं आगे बढ़ा |

तीन – चार घंटे पहले बने मेरे दोनों पहाड़ी दोस्त, यहाँ से आगे निकल गए, सीधी चढ़ाई ने मुझे स्लो कर दिया, और मैं आराम आराम से आगे बढ़ने लगा, थोड़ी दूर आगे मै दो और लड़कों से मिला , दोनों दिल्ली से थे, और ये उनका पहला ट्रेक था, जानकर मैं थोड़ा प्रभावित हुआ कि पहला ही ट्रेक और वो भी भोलेनाथ का, बातचीत करते करते हम साथ साथ चलने लगे | ये एकदम सीधी चढ़ाई है, 9 किमी तक आपको बस चढ़ना है, कहीं कोई प्लेन स्ट्रेच नहीं है, और रास्ते में कहीं पानी या झरने नहीं हैं और बस इक्का दुक्का टेंट्स  हैं जहाँ पानी तो मिलता है पर ये काफी दूर दूर हैं, इसलिए साथ में पानी होना बहुत आवश्यक है |

चलते चलते तीन चार घंटे हो गए और हम मुश्किल से इतने ही किलोमीटर आगे बढ पाए, विकास और सुनील के साथ एक लोकल टेंट ओनर भी चल रहा था जो उन्हें सिंघाड़ से मिला था, वैसे तो उसे थाचरू के भी २-३ किमी आगे जाना था, पर साथ में चलने के कारण वो भी बहुत स्लो हो गया और हर बार पूछने पर यही बताता की बस अब आने वाला है, पर हमें पता था कि मंजिल अभी बहुत दूर है |

थोड़ी देर और चलने के बाद एक बड़ा सा टेंट मिला जहाँ आलू पराठे , मैगी और चाय बन रही थी, हमारी तो मानो मन की मुराद ही पूरी हो गयी, बैग वैग पटक कर हम अन्दर घुस गए, जूते खोलकर आराम से लेट गए, 60० पर चढ़ते चढ़ते पीठ टेढ़ी हो गयी थी, 15 मिनट पीठ के बल लेटकर बड़ा आराम मिला | तब तक टेंट वाला गरमागरम पराठे सेक लाया, पराठे आचार और चाय पीकर तबियत खुश हो गयी, चार बज चुके थे, मौसम में ठण्ड बढ़ने लगी थी, चढ़ाई वैसी ही थी पर कुछ जगहों पर बारिश के कारन कीचड़ था इसलिए संभल के चलना पड़ रहा था | ये एक खड़ी पहाड़ी है, चारों ओर ऊँचे ऊँचे पेड़ हैं, और थाचरू इसके टॉप पर है, चलते चलते 6 बज गए, कुर्पन काफी नीचे छूट चुकी थी और थाचरू अभी भी काफी दूर था, जाओं से अब तक हम लगभग 11 किमी चले थे और इसमें 9 घंटे लग चुके थे, हिम्मत कर हम धीरे धीरे चलते रहे | तभी एक जगह पर टेंट वाले ने हमें रोका, थोडा किनारे पर आकर एक जगह से, सीधे श्रीखंड महादेव के दर्शन हो रहे थे, देखने में ये जगह दुर्गम, अत्यंत ऊँची, असंभव सी प्रतीत हो रही थी, और 70 फीट ऊँचा शिवलिंग दूरी के कारण बहुत छोटा दिख रहा था, महादेव को प्रणाम कर हम आगे बढे, मन में अभी बस एक विचार आ रहा था कि जब थाचरू तक इतनी कठिन चढ़ाई है, तो लगभग 5800 मीटर की ऊंचाई पर स्थित शिवलिंग की डगर कितनी कठिन होगी |

एक घंटे की और चढ़ाई के बाद कुछ टेंट्स नज़र आये, थोडा और ऊपर आकर एक बोर्ड मिला, लिखा था – थाचरु, पढ़ते ही जान में जान आयी, अब हम पहाड़ी के ऊपर पहुँच चुके थे | अँधेरा लगभग लगभग घिर आया था, घड़ी साढ़े सात बजा रही थी, और ठंडी तेज़ हवाएं हमारा स्वागत कर रही थीं, पर अभी एक काम बाकी था, वो था एक खाली टेंट ढूँढना | ये बहुत बड़ी जगह नहीं है और इस कारण टेंट्स भी ज्यादा नहीं हैं, सभी टेंट्स लगभग भर चुके थे, और बहुत ज्यादा एक आदमी की गुन्जाईस थी, और हम तीन थे, एक रात पहले की बारिश के कारण चारों ओर कीचड़ था और चलना बहुत मुश्किल था, टेंट ढूँढ़ते आठ बज गए, रात में कीचड़ में ये काम और भी मुश्किल हो गया पर अभी तक सफलता नहीं मिली थी | टेंट वाला जिसे हम मैडी बुलाते थे, वो भी इधर उधर से खाली टेंट ढूँढने में लग गया, खैर उसकी मेहनत रंग लायी, और हमें एक खाली टेंट मिल गया, अब बस जगह देखनी थी उसे लगाने की | थोडा आगे जाकर कुछ ऊंचाई पर हमने टेंट लगाया और मैडी आगे काली घाटी के लिए रात में ही निकल गया, हमारे कारण उसे पांच से छह घंटे की देरी हुई, पर शायद पहाड़ी लोग होते ही अच्छे हैं, पहले हरिबंश हरिबंश  अब मैडी | अभी एक काम और बाकी था, कम्बल और कुछ नीचे बिछाने के लिए चादर या पॉलिथीन शीट |

साढ़े आठ बज चुके थे, ठंडक काफी बढ़ गयी थी, और हमें भूख भी लग रही थी, विकास के पास स्लीपिंग बैग था, पर मेरे और सुनील के पास कुछ नहीं था, आस पास टेंट्स में जाकर कम्बल चादर पूछते हुए हम लंगर की ओर बढ़ गए | लंगर श्रीखंड महादेव यात्रा समिति द्वारा यात्रा के 10-12 दिनों तक लगाया जाता है, लंगर में दाल और चावल का प्रसाद था, खाकर समिति के लोगों से हमने कम्बल के बारे में पूछा, क्योंकि हमें उम्मीद थी कि यहाँ कम से कम एक कम्बल तो मिलेगा, पर यहाँ भी निराशा ही हाथ लगी |

वापस टेंट में आकर हमने सारी थर्मल लेयर्स डाल लीं, मेरे पास न्यूज़ पेपर था, वो नीचे बिछाया और लेट गए, तभी एक लेडी की आवाज़ आयी, बाहर निकल कर देखा तो एक लेडी कम्बल लेकर खड़ी थी | थाचरू में ऐसा कोई टेंट नहीं बचा था जहाँ हमने कम्बल के लिए न पूछा हो, असल में ये कम्बल उसी टेंट से था, जहाँ से मैडी ने टेंट का जुगाड़ किया था, और यहाँ भी हमने कम्बल माँगा था, पर शायद उस टेंट वाले को पता चल गया था कि हमें कम्बल नहीं मिल पाया है और उसके पास कोई एक्स्ट्रा रहा होगा जो उसने भिजवा दिया |

पर सब ओर से निराश होने के बाद अचानक इस तरह कम्बल का मिलना हमारे लिए बड़ी बात थी, जिसके लिए हमने मन से उस महिला को धन्यवाद दिया, और वापस टेंट में आ गए | कम्बल काफी बड़ा था इसलिए हमने आधा नीचे बिछाया और आधे को आराम से ओढ़ लिया, विकास के पास पहले से ही स्लीपिंग बैग था तो कोई परेशानी नहीं हुई |

मैंने मन ही मन भगवान शंकर को याद किया, पहले हरिबंश . फिर विकास और सुनील और जरूरत के समय टेंट और कम्बल का मिलना किसी कृपा से कम नहीं था, मन ही मन ये सब सोचते हुए मैं सो गया | सुबह पांच बजे आँख खुली, टेंट से बाहर आकर देखा कि मौसम साफ़ है, अब फ्रेश होने के लिए जगह देखनी थी, खैर थोड़ा ऊपर जंगल की ओर जगह मिली, वापस नीचे आकर, ब्रश करकर हम लंगर की ओर आ गए | श्रीखंड शिवलिंग के यहाँ से साक्षात् दर्शन हो रहे थे, और भगवान शंकर की आरती हो रही थी, भगवान भास्कर की स्वर्णिम किरणें, दूर स्थित शिवलिंग को अपने ही समान स्वर्णिम वर्ण से रंग रही थीं, साफ मौसम में उस जगह की सुन्दरता देखते ही बनती थी |

चाय पीकर और भगवान शंकर को प्रणाम कर सात बजे हमने प्रस्थान किया | जाते समय कम्बल और टेंट वापस किया, और टेंट वाले को दिल से धन्यवाद् दिया, वास्तव में इस प्रकार की मदद किसी चमत्कार से कम नहीं थी | अभी काली घाटी तक 3 किमी की चढ़ाई है, 1 किमी आगे जाने पर ही वातावरण बदलने लगता है, वृक्षों का स्थान जंगली घास और जड़ी बूटियों ने ले लिया है, काली घाटी तक एक विशेष प्रकार का पीले फूलों वाला पौधा मिलता है, और चारों ओर की ढालें पीली नज़र आती हैं, ये दृश्य बहुत मनमोहक दिखता है | थोड़ा आगे जाने पर मौसम बदलने लगता है, साफ़ आसमान को बड़े काले बादल पूरी तरह से भर देते हैं और बूंदा बांदी चालू हो जाती है, बैग किनारे रखकर हमने अपने पोंचो और रेन कोट पहन लिए, अभी हम मुश्किल से डेढ़ घंटे में डेढ़ किमी ही पहुंचे थे | पोंचो और रेन कोट की भी अपनी ही समस्या है, रेन कोट जहाँ भारी होता है, और पैक का वजन बढ़ाता है वहीँ पोंचो हल्का होता है पर चलने पर यहाँ वहां फंसता है, इसलिए मुश्किलें पैदा करता है, मेरे हिसाब से अगर आप हलके ट्रेक वियर पहने हैं तो दोनों ही पहनने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अगर आप बाहर से नहीं भीगते हैं तो इन्हें पहनकर अन्दर से जरूर भीग जाते हैं, इससे अच्छा है ना ही पहनें, ट्रेक पेंट और टी शर्ट थोड़ी देर में अपने आप ही सूख जाते हैं |

घने काले बादलों और बूंदा बांदी के बीच 10 बजे के आस पास हम काली घाटी पहुँच गए, यहाँ काली माँ का एक छोटा सा मंदिर है; यहाँ पूजा आरती कर और शीष नवां कर हम आगे चले | थोड़ा आगे बढ़ते ही मूसलाधार बारिश शुरू हो गयी, और हम जल्दी से एक टेंट में घुस गए, अन्दर जाकर देखा तो पराठे सिक रहे थे, मन प्रसन्न हो गया, जूते खोलकर और बैग साइड में लगा कर, हम आराम से बैठ गए |

बारिश में गरमा गरम पराठे और चाय पीकर मजा आ गया, आधे घंटे बाद बारिश हलकी हुई तो हम बाहर निकले, अब आधे किमी की सीधी ढलान है, मिटटी नहीं है सिर्फ चट्टानें और पत्थर हैं, जो बहुत स्लिपरी हैं और बारिश के कारण उतरना और भी मुश्किल हो गया है, भोले का नाम लेकर धीरे धीरे हम नीचे उतरे |

राहों के काटे कंकर सब दूर करेंगे शंकर, द्वारे पे उसके आकर चरणों में रख देना सर |

जन्मों की प्यास बुझेगी, शिव हैं करुणा के सागर ||  

विकास पूरे रास्ते यही गाना गुनगुनाता रहा जो सुनने में बहुत अच्छा लग रहा था, घर आकर सर्च किया तो पता चला ये एक एल्बम है जिसका टाइटल है, “ मनवा चल शिव धाम रे, जपता चल शिव नाम रे |” वास्तव में बहुत बढियां पंक्तियाँ हैं |

 भोले नाथ – सबके साथ ||

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lost..in Himalayas....

 

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