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सुन्दरकाण्ड

  • Vineet
  • Aug 25, 2019
  • 64 min read

Updated: Sep 5, 2022


ॐ श्री परमात्मने नमः

अतुलितबलधामं हेमसैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम |

सकलगुणनिधामं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ||

||ॐ नमः शिवाय||

||जय श्री राम ||

गौरीशंकर भगवान की जय ||

जीवन में इस नाम से बढ़कर कोई नाम नहीं है, इसकी महिमा अपरंपार है, यहाँ तक कहा जाता है कि स्वयं प्रभु भी अपने नाम की महिमा का सकल वर्णन नहीं कर सकते हैं, तो फिर हम सब की बिसात ही क्या | हाँ बस इतना पता है की इस नाम के जप से अवश्य कल्याण होता है |

श्री राम ऐसे महामानव है जिन्होंने मर्यादा से परिपूर्ण एक आदर्श जीवन जिया और महामानवों का आचरण, उनके द्वारा किये गए कर्म ही वास्तव में धर्म का रूप लेते हैं, वही धर्म हो जाता है और इसी को इस संस्कृति ने धर्म कहा है | आज हम सब किसी और ही चीज़ को धर्म कहते हैं और वास्तव में ये बाहर से आया हुआ विचार है जो की किसी विश्वास या किताबी चीज और उसे अपनाने को ही धर्म मानता है और हमारी भी सनातन संस्कृति और परंपरा को भी हिन्दू धर्म का नाम दे दिया, जबकि वास्तव में हिन्दू तो कोई धर्म ही नहीं है ये तो जीवन जीने की कला और और संस्कृति है और एक अत्यंत उच्च सभ्यता है जिसने किसी भी विश्वास को तब तक नहीं मन जब तक उसे स्वयं परख नहीं लिया ये तो हमेशा से एक खोजने वाली सभ्यता रही है और जिसकी परिणिति पूर्ण स्वतंत्रता अथवा मोक्ष रही है | पर दूसरे बाहर से आये मतावलंबियों ने इसकी विशेषता को न समझते हुए अपने ही समान एक मत का नाम दे दिया और भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिन्दू कहलाया |

श्री राम से बड़ा महापुरुष शायद ही दुबारा कभी धरती पर अवतरित हो, तो आज जब नित दिवस ही किसी न किसी घटना और विनाश से हमारा सामना पड़ता है और लोगों का आचरण हमें क्षुब्ध करता है और धरती एक विनाश के मुँह पर खड़ी है तो ये समय इस आचरण से प्रेणना प्राप्त करने का है |

मंगल भवन अमंगल हारी |

​द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी ||

​जो मंगल करने वाले हैं और अमंगल को हरने वाले हैं वे दशरथ नंदन प्रभु श्री राम मुझ पर दया करें |

मैंने जितना भी श्री राम के बारे में जाना है और पढ़ा है उसे अपनी समझ के अनुरूप प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगा वैसे श्री रामचरित मानस में सुन्दरकाण्ड ही मैंने सबसे अधिक पढ़ा है तो प्रारंभ यहीं से करते हैं |

ॐ श्री परमात्मने नमः

ॐ श्री गणेशाय नमः

प्रनवऊँ पवन कुमार खल बन पावक ज्ञान घन

​जासु ह्रदय आगार बसहिं राम सर चाप धर

श्री गुरु चरन सरोज रज निज मन मुकुर सुधारि, वरनऊँ रघुवर विमल जसु जो दायक फल चारि |

बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरौ पवन कुमार, बल बुद्धि विद्या देहु मोहि हरुह कलेश, विकार ||

​जय श्री राम

मैं पवन पुत्र श्री हनुमान जी को प्रणाम करता हूँ जो दुष्टों के लिए वन में प्रज्वलित अग्नि के समान और जो ज्ञान के भंडार हैं एवं जिनके ह्रदय रूपी भवन में प्रभु श्री राम धनुष - बाण सहित विराजते हैं |

श्री गुरु जी के चरण कमलों की धूल से अपने मन रूपी दर्पण को पवित्र कर, श्री रघुबीर जी के निर्मल यश का वर्णन करता हूँ, जो चारों फल अर्थात् धर्म, अर्थ,काम और मोक्ष को देने वाला है | हे पवन कुमार ! मैं आपका सुमिरन करता हूँ,आप तो जानते ही हैं कि मेरा शरीर और बुद्धि निर्बल है, मुझे शारीरिक बल, बुद्धि और ज्ञान दीजिये और मेरे दुखों एवं दोषों का नाश कर दीजिये |

मैं यहाँ पर श्री गोस्वामी तुलसीदास जी को शत शत नमन करता हूँ जिन्होंने ऐसे असाधारण ग्रंथ की रचना करी जिसका प्रभाव युगों - युगों तक अमर है, अक्षुण्य है और जो समस्त संकटों और बाधाओं से मुक्ति दिलाकर मनुष्य को कल्याण के मार्ग पर ले जाने वाला है | इस ग्रन्थ में ऐसे ऐसे गूढ़ विचार सुन्दर चौपाइयों में पिरोकर इतनी सरलता से व्यक्त किये गए हैं जिनकी उपमा दे पाना असंभव है, ये ग्रन्थ वास्तव में जीवन का निचोड़ है, सार है और अर्थ है इसके हर प्रसंग में हर दोहे में हर छन्द में और हर चौपाई में जीवन दर्शन छुपा हुआ है या कहा जा सकता है की वास्तव में ये जीवनग्रन्थ है | ये हमें दया, करुणा, वीरता, विश्वास और विनय की शिक्षा देता है, कठिन से कठिन परिस्थित में भी हार न मानना और प्रभु पर अनन्य विश्वास ये इसका मूल है | ऐसे उच्चकोटि के कवि जो कि द्रष्टा, भक्त, ज्ञानी, पण्डित और साथ ही साथ अनंत विनीत और सरल हैं, बड़े दुर्लभ होते हैं और गोस्वामी जी ऐसे ही कवि हैं जो इन सब गुणों की साक्षात् मूर्ति हैं और जिनमे रत्ती भर भी अहंकार नहीं है, ये वन्दनीय हैं, पूजनीय हैं और प्रभु के अनंत और अनन्य भक्त हैं, ऐसे अमृत सामान ग्रन्थ की रचना कर इन्होंने मानव का बड़ा भारी उपकार किया है, आपको सदा सर्वदा शत - शत नमन |

जय श्री राम |

उन्हीं के शब्दों में उनके लिए :

सदा रहो रघुपति के दासा |

निस दिन प्रभु मोहि राखो अपने संग साथा ||

आज हम सब सत्ता एवं शासकों से उम्मीद किये रहते हैं और पूरा न होने पर दुखी होते रहते हैं | उम्मीद करना बुरा नहीं है पर किससे उम्मीद कर रहे हैं ये अवश्य महत्व रखता है | आज सत्ता बड़ी चीज है और सारी लड़ाई इसी के लिए है, सारे अपराध, घोटाले, दुराचरण और अधिकतर समस्याओं की जड़ यही है | येन केन प्रकारण किसी प्रकार सत्ता प्राप्त करनी है और राज करना है, आज आप किसी से ये उम्मीद कर सकते हैं कि वो किसी की अपेक्षा पूरा न होने पर सत्ता का त्याग कर देगा ? त्याग तो छोड़िये और अपेक्षा भी छोड़िये अगर कहीं से कोई आवाज उठती है तो उसे भी दबाने का प्रयास होता है और प्रायः दबा ही दिया जाता है | जैसा आचरण ऊपर बैठे और शक्तिशाली लोग करते हैं जनता प्रायः उनका अनुकरण करती है और कोई संशय नहीं कि आज सब ओर पापाचरण, व्याभिचार, अपराध, हिंसा, भ्रष्टाचार और बेईमानी का बोलबाला है और जनता बुरी तरह पिस रही है पर बात तो ये भी है की अधिकांश लोग स्वयं भी इसी प्रकार का आचरण कर रहे हैं |

और ऐसे समय प्रभु श्री राम का चरित्र जरा सुमिरन कीजिये, पिता की आज्ञा के लिए राज सिंहासन का त्याग, प्रजा के कहने पर गर्भवती पत्नी का त्याग सिर्फ इसलिए कि प्रजा संतुष्ट रह सके और शायद इस कार्य के लिए उन्होंने सीने में कितना भारी बोझ उठाया होगा | यही आचरण धर्म कहलाता है, यही सनातन धर्म है और यही ऋषि परंपरा है और यही चरित्र राष्ट्र का चरित्र निर्माण करता है और इसी आचरण और धर्म ने भारत को सदियों - सदियों से जीवित रखा है और इस देश को महान बनाया है वो देश जो ज्ञान लुटता रहा और वो देश जो निर्वाण की खोज करता रहा |

​क्या आज का भारत वही भारत है ?

आज जहाँ नेता और शासक गण बात – बात पर झूठ बोलते हैं और अपनी बात से पलट जाते हैं, और जिनका एक मात्र उद्देश्य किसी प्रकार से बस सत्ता की प्राप्ति रहता है, वहीँ प्रभु का चरित्र तो देखिए, पिता की आज्ञा के लिए सिंहासन त्याग और वही राज्य भरत जी द्वारा पुनः चित्रकूट में वापस किये जाने पर भी पिता की आज्ञा का मान रखने के लिए 14 वर्ष के कठोर वनवास का पालन | तो प्रभु की प्रकृति में वचन का बड़ा महत्व् है | और आज नेता बात – बात पर झूठ बोलते हैं, कुछ कहते हैं और कुछ करते हैं, और तो और आज पुत्र पिता को ही रस्ते से हटाकर सत्ता पर काबिज़ हो जाते हैं |

तो एक प्रकार से कहा जा सकता है कि वचन या सत्य का लोप होने से धर्म का लोप हो जाता है और इसीलिए इस सभ्यता और संस्कृति में सत्य पर बड़ा जोर दिया गया है |

जहाँ लोगों और शासकों द्वारा छोटी से छोटी चीज़ मोह वश नहीं छोड़ी जाती वहाँ प्रजा का मान रखने के लिए अपनी गर्भवती नारी का त्याग, ये त्याग का सर्वोच्च उदहारण है जो वास्तव में ये दर्शाता है कि प्रजा का शासन, प्रजा के लिए और प्रजा द्वारा चुने हुए प्रतिनिध के द्वारा | ऐसे महापुरुष युगों – युगों में अवतरित होते हैं और इनके द्वारा किये गए कर्म समाज के लिए आदर्श बन जाते हैं और युगों – युगों तक लोगों का मार्ग प्रशस्त करते रहते हैं | तो प्रभु की प्रकृति में त्याग का बड़ा और ऊँचा स्थान है और आज समाज से त्याग की भावना का लोप हो गया है और इसके भी कारण समाज पतन को प्राप्त हुआ है |

आज जहाँ अपना स्वार्थ ही सर्वोपरि है, पहले किसी तरह मेरा काम निकल जाये बाकि बाद में देखी जाएगी, और यही राह हर कोई अपना रहा है, दूसरों के प्रति सहानुभूति और प्रेम नित्य प्रति घट रहा है और हर कोई बदले की भावना से ग्रस्त नजर आ रहा है वहीँ प्रभु का आचरण तो देखिये सुग्रीव से मित्रता होने पर पहले उसे किष्किन्धा के राज सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया और बाद में उसकी सहायता ली | यहाँ पर प्रभु के एक और बड़े गुड़ के दर्शन होते हैं और वो है, धैर्य | सुग्रीव को राज्य मिल गया, और सीता माता की खोज की बात चली तो उन्हें वानरों को अविलम्ब भेज देना चाहिए था और वैसे भी इस कार्य में पहले ही बहुत देर हो चुकी थी और पत्नी वियोग की व्याकुलता और उनकी कुशल क्षेम को लेकर चिंता हर कोई भली भांति समझ सकता था पर उस सब के बाद भी उन्होंने कहा, “ अभी चार माह प्रतीक्षा करनी चाहिए |” लोगों ने पूछा क्यों ? तो प्रभु ने कहा, “ अभी चौमास का समय है और नदी – नाले उफान पर होंगे ऐसे में यह समय खोज के लिए उपयुक्त नहीं है,” और चार माह बाद खोज का आदेश दिया | तो प्रभु की प्रकृति में स्वार्थ का कोई स्थान नहीं है |

आज जहाँ हम एक दूसरे की बात तक पूरी नहीं होने देते, जहाँ कोई किसी की नहीं सुनना चाहता वहाँ ऐसा आचरण निश्चय ही प्रेणना के योग्य है | मानव का जीवन दूसरों की सहायता और उनके दुःख दूर करने के लिए ही है, ये उन्होंने कदम – कदम और हर पल दर्शाया है, चाहते तो चित्रकूट की पवित्र भूमि पर ऋषि – मुनियों के सानिंध्य में तप करते हुए 14 वर्ष व्यतीत कर सकते थे, अयोध्या भी वहाँ से निकट थी और घर परिवार वालों की कुशल – क्षेम भी मिलती रहती पर मानवता की सेवा जो करनी थी, उन्हें कष्ट से जो उबारना था, सुर – नर – मुनि – भूमि – और गायों की रक्षा जो करनी थी, इसके लिए चित्रकूट छोड़कर दंडकारण्य के सघन और दुर्गम क्षेत्र में प्रवेश कर गए और लगभग वनवास के पूरे समय वहाँ प्रवास कर असुरों का संहार किया और ऋषि – मुनियों को निर्भय किया | तो प्रभु की प्रकृति में सेवा का विशिष्ट स्थान है, और उनका पूरा जीवन मानवता की सेवा को ही समर्पित रहा |

आज हम हमें क्या की भावना से ग्रस्त हैं, देश गर्त में जाये हमें क्या, भ्रष्टाचार अनाचार बढ़े हमें क्या, सैनिक मरें तो मरें हमें क्या, अड़ोस – पड़ोस में कुछ हो हमें क्या, श्री राम मंदिर बने न बने हमें क्या ? अगर प्रभु ने भी हमें क्या कहा होता तो आज आप और हम मौज करने के लिए पृथ्वी पर नहीं होते | ये हमारे पूर्वज हैं और इन्होने हमारी रक्षा की है और हम सब इन्हीं के वंशज हैं, जब हम अपने अपने घरों में अपने पूर्वजों की फोटो लगा सकते हैं तो फिर ये जो पूरे भारत वर्ष के आधार हैं, पूर्वज हैं, आराध्य हैं तो इनके लिए एक मंदिर तो बना ही सकते हैं | याद रखिए मंदिर सरकारें न बनवा सकती हैं और न बनाएँगी, ये उम्मीद बिल्कुल छोड़ दीजिये, सरकारें मौज करने के लिए हैं और वोट बटोरने के लिए हैं उनके लिए प्रभु का नाम भी बस एक साधारण नाम की भांति ही है, ये बेहद शातिर और बहरूपिये लोग हैं, पता नहीं क्यों हम इनके पीछे पागल हैं और मरने – मारने को उतारू हैं |

मंदिर के लिए जनजागरण हुआ था, लोगों ने बलिदान दिया था, साधु - संतों का भी योगदान था और आगे भी जनता और साधु - संतों की भागीदारी से ही मंदिर बनेगा |

और आज जब इस ब्लॉग को लिखे तीन महीने हो रहे हैं तभी प्रभु की कृपा से एक ऐसा निर्णय आया जिसकी पीढ़ी दर पीढ़ी लोग प्रतीक्षा करते रहे |जिसके कारण मुझे इस ब्लॉग में कुछ परिवर्तन करना पड़ रहा है | ये मन को असीम शांति और संतुष्टि देने वाला निर्णय है, और वास्तव में बड़ा सुखद पल है |

जय श्री राम |

भला हो उन असंख्य राम भक्तों का जिनके अथक प्रयास और बलिदान से ये विषय राष्ट्रीय विषय बना, भला हो उन लोगों के अथक प्रयास का जिसके कारण सर्वोच्च न्यायालय ने रोज सुनवाई करी और धन्यवाद कि न्यायालय ने निश्चित समय में सत्य निर्णय सुनाया |

सत्यमेव जयते ||

यहाँ पर एक और बात आती है, मित्रता की | आज जहाँ स्वार्थ ही मित्रता का पैमाना है और सब कुछ है यहाँ पर भी हम प्रभु के चरित्र से प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं | बाली सुग्रीव से अधिक वीर था, राजा था, रावण पर विजय प्राप्त कर चुका था और सीता माता को लंका से वापस लाना उसके लिए अधिक आसान होता, बावजूद इसके प्रभु ने सुग्रीव से मित्रता की और उसके द्वारा बाली के गुणों का बखान करने पर भी उन्होंने उसका साथ नहीं छोड़ा, पहले उसकी सहायता की और फिर उसकी सहायता से वानरों की सेना द्वारा जिसका नेतृत्व हनुमान जी ने किया माता सीता की खोज की गयी | तो इस प्रकार प्रभु की प्रकृति में लालच के लिए कोई स्थान नहीं है |

और आज हम शक्ति और स्वार्थ के पीछे ही भागते हैं और इसी पैमाने पर दोस्ती बनती और बिगड़ती है | धर्म और सत्य की राह पर चलने पर अनेकों कष्टों का सामना होता है पर अंत में जय सदा सत्य की ही होती है और ये बात रामायण में कदम – कदम पर सत्य साबित होती है | प्रभु श्री राम का चरित्र अति पावन है, अनुपम है, मन भावन है जिसका जितना गुणगान किया जाय वो कम है |

सीता – राम चरित अति पावन; मधुर, सरस और अति मन भावन |

पुनि – पुनि कितने हो सुने सुनाए | हिय की प्यास बुझत न बुझाए |

और एक बात बड़े महत्व की है और वो है भावना |

जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखि तिन तैसी ||

राम सिया – राम, सिया – राम जय जय राम ||

प्रभु भक्त वत्सल हैं वो दूसरों के दोषों को अनदेखा कर देते हैं केवल गुणों को ही महत्व देते हैं, शत्रु के भाई होने पर भी विभीषण को शरण दी, क्योंकि उसकी भावना नेक थी | एक बार तो सुग्रीव जी ने ये तक कहा था कि इन्हें बाँध लेते हैं, क्योंकि ये निशाचर और रावण का भाई है और जरूर किसी खास उद्देश्य के लिए ही यहाँ आया या भेजा गया होगा |

जानि न जाई निशाचर माया, काम रूप केहि कारण आया |

भेद हमार लेन सठ आवा, राखिअ बाँधि मोहि अस भावा ||

तिस पर प्रभु कहते हैं,

सखा नीति तुम नीकि बिचारी, मम पन शरणागत भय हारी |

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना, शरणागत बच्छल भगवाना ||

शरणागत की रक्षा मेरा प्रण है, और प्रभु के ऐसे वचन सुनकर हनुमान जी प्रसन्न होते हैं कि भगवान शरणागत वत्सल हैं और उन्हें अभय प्रदान करते हैं |

प्रभु आगे कहते हैं,

निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल, छिद्र न भावा ||

अब आज की परिस्थिति पर विचार कीजिये, पहले तो हम लोगों के क्रिया – कलापों में अर्थ ढूँढ़ते हैं, इसलिए किया होगा, उसलिये किया होगा, ये ऐसा है वो वैसा है | हर बात का अर्थ लगाया जाता है और तर्क – वितर्क के पैमाने पर परखा जाता है | मदद भी सोच – विचार के की जाती है कि आगे इससे फायदा होगा कि नहीं और हर ओर नकारत्मकता दिखाई और सुनाई पड़ती है, जहाँ देखो वहाँ आलोचना का माहौल है और कुछ भी सकारात्मक सुनाई नहीं पड़ रहा है | आदमी को ऐसा लगने लगा है कि सिर्फ वो ही सही है और बाकी सब गलत, और दूसरों को मूर्ख या नासमझ समझने वालों की भी कमी नहीं है, और ऐसा करके दूसरों का भरपूर फायदा भी उठाया जाता है और अपने को बड़ा बुद्धिमान या निपुण समझा जाता है, कई बार तो दूसरा बेचारा समझता भी है की उसका फायदा उठाया जा रहा है पर बेचारा कहता कुछ नहीं है | अब बताइए ऐसे लोग समझदार हैं या नासमझ, बुद्धिमान हैं या बेवकूफ, आदर के पात्र हैं या निर्लज्ज |

वहीँ प्रभु का चरित्र और प्रकृति देखिये, अपना फायदा – नुकसान नहीं देख रहे हैं, जबकि स्वयं दशानन का भाई मिलने आया है, और वानरों का मत था कि इसे बाँध लिया जाये जिससे युद्ध में इसका उपयोग हो सके, एक तो इससे शत्रु के राज लिए जा सकेंगे और दूसरा बंदी होने से हमारी बात शत्रु तक नहीं पहुँचा पायेगा |

पर प्रभु ने हानि – लाभ, सही – गलत का विचार किये बिना शुद्ध ह्रदय से उसे अपनाया और आगे जाकर उसका परिणाम अच्छा ही रहा | अगर आपका मन निर्मल है, कपट, छल – छिद्र नहीं है तो आपको प्रभु की प्राप्ति होगी, वे अपनाएँगे और कल्याण करेंगे | आजकल हम किसी की बात सुनते ही नही हैं, बस पहले से ही मन बना लेते हैं की फलाँ ऐसा है, वैसा है | अगर कोई घर आ भी जाए तो जरूर किसी काम से आया होगा, फिर चाहें वो मित्र ही क्यों न हो और उससे रूखे मन से ही बात करते हैं | जिससे होता ये है कि अगर सामने वाला हमारे काम और मतलब की बात या हमारे भले के इरादे से भी आया हो तो भी हम उससे ढंग से बात नहीं करते हैं और इसका परिणाम ये होता है कि वो व्यक्ति व्यथित होकर चला जाता है और हमारा नुकसान ही होता है | ये तो सामान्य परिस्थितियों की बात है अगर सामने वाला शत्रु हो या उसका कोई रिश्तेदार तो फिर कहना ही क्या ? हम देखते ही मारपीट और लड़ाई – झगड़े पर उतर आएंगे और उसे भगा देंगे | ये भी हो सकता है कि वो आपसे क्षमा या सुलह के इरादे से आया हो पर यहीं सारा काम बिगड़ जाता है |

यहाँ पर भी सुग्रीव ऐसा ही कह रहे हैं कि इसे बाँध लेते हैं पर प्रभु पहले कहते हैं कि मित्र पहले जरा सूझ –बूझ तो कर लो | प्रसंग कुछ इस प्रकार है, कुछ दोहे पुनः दोहरा रहा हूँ |

कह सुग्रीव सुनहु रघुराई, आवा मिलन दशानन भाई |

कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा | कहहि कपीस सुनहु नरनाहा,

जानि न जाई निशाचर माया, कामरूप केहि कारण आया |

भेद हमार लेन सठ आवा, राखिअ बाँधि मोहि अस भावा ||

तिस पर प्रभु कहते हैं,

सखा नीति तुम नीकि बिचारी, मम पन शरणागत भय हारी |

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना, शरणागत बच्छल भगवाना ||

तो प्रभु की प्रकृति में क्षमा है, धीरज है और बड़ी बात बदले के लिए स्थान नहीं है | चित्त की निर्मलता का महत्व है, लोगों के गुणों का महत्व है, सकारात्मकता का स्थान है, और छल – कपट के लिए कोई स्थान नहीं है, और ये आचरण बड़ा प्रेरणादायक है जिसको आज के नकारात्मक माहौल में अपनाने की बड़ी आवश्यकता है |

आज कल हम संवेदनहीन भी होते जा रहे हैं, घर – परिवार, बीबी – बच्चों के अलावा कुछ सूझता ही नहीं, कुछ देर पति – पत्नी की बात न हो तो आफत आ जाती है, कहीं अगर बाहर हो तो हर घंटे बात होती है, पल – पल की खोज खबर ली जाती है जरा सा फोन न लगे तो मन बेचैन हो जाता है, और अब तो आदमी सोशल भी बहुत हो गया है और इन्ही सब में खोया रहता है, एक – दूसरे की खूब खोज – खबर ली जाती है, आज कुछ दिन दूर रहना तो छोड़िये क्या आप कुछ घंटे भी बेफिक्र रह सकते हैं ? जरा सी बात न हो पाए तो कितनी चिंता हो जाती है, कैसे – कैसे विचार आते हैं, घबराहट सी हो जाती है, कुल मिलाकर जान अटक सी जाती है |

अब यहाँ पर कुछ चरित्र हैं, जो वर्षों से अपने राज्य, घर, परिवार सब से दूर हैं, एक जगह चैन से रह भी नहीं पा रहे हैं, यहाँ – वहाँ भटक रहे हैं और दुष्टों का संहार कर रहे हैं | दुर्गम और दुरूह वनों में नंगे पाँव खतरनाक जीव जंतुओं के बीच विचरण कर रहे हैं, चाहते तो चित्रकूट में आराम से वनवास की अवधि काट सकते थे, अयोध्या भी पास थी और बंधु – बांधवों और परिजनों से मिलना भी लगा रहता, राज्य के समाचार भी प्राप्त होते रहते, पर नहीं | मानवता की सेवा जो करनी थी, सुर – नर – मुनियों – गायों और ब्राह्मणों की रक्षा जो करनी थी, पृथ्वी पर धर्म की स्थापना जो करनी थी इसलिए पल – पल कष्ट सहे, भीषण शारीरिक और मानसिक पीड़ाएं झेलीं | १४ वर्षों तक माँ से दूर, कोई खोज खबर भी नहीं, पिता के भी अंतिम दर्शन तक नहीं हुए, प्रजा जनों का भी कोई समाचार नहीं, लक्ष्मण जी की तो पत्नी भी उनके साथ नही थीं, वास्तव में कितना बड़ा त्याग किया इस वीर ने और साथ में उसकी पत्नी ने भी, सीता जी ने कैसा पति व्रत धर्म निभाया | क्या ऐसी अपेक्षा आज सुख – सुविधाओं की आदी, सेवा भाव को तुच्छ और पति का सम्मान न करने वाली अधिकतर महिलाओं से की जा सकती है ?

यहाँ पर एक और मानसिक विक्षोभ का इन महापुरुषों ने सामना किया और उसका वर्णन नितान्त ही कठिन है | मनुष्य स्वयं का कष्ट तो सह लेता है, परिजनों को याद भी करता है, दुखी भी होता है और आँखों में आँसू भी भर आते हैं पर इससे ज्यादा कष्ट उसे इस बात का होता है कि परिजन स्वयं किस स्थिति में होंगे ? वे कैसे इस दुःख को झेलते होंगे और इस कष्ट को सहते होंगे ? उनको किस प्रकार की मानसिक पीड़ा होती होगी और कौन उन्हें संभालता होगा ? वे कैसे इस स्थिति का सामना कर पाते होंगे ? ये सब सोचकर मन बहुत व्यथित हो जाता है भले ये कुछ दिनों या महीनों के लिए ही क्यों न हो और इस पीड़ा से पार पाना बहुत दुष्कर लगता है और बहुत सारे लोग इस को नहीं सह पाते हैं | पर यहाँ पर ऐसे महापुरुष हैं जो इसको 14 वर्षों तक सहते हैं और फिर भी अपने कर्तव्य पथ से जरा भी विचलित नहीं होते हैं, और यही नहीं इन वर्षों में अन्य बहुत सी बाधाएँ भी उनके जीवन में आती हैं पर वो इन सब का भी पूरी धीरता और गंभीरता से सामना करते हैं, जीवन में पूरी तरह से संतुलन बनाए रखते हैं और सत्य एवं धर्म के मार्ग पर चलते रहते हैं, और ये सब भी दूसरों के भले और कल्याण के लिए, इसमें इनका स्वयं का कोई स्वार्थ नहीं है और इसी आचरण और व्यवहार के कारण ये महापुरुष कहलाए, अजर – अमर हो गए, मानव से देवता बन गए और पूजित हो गए | लोगों ने स्थान – स्थान पर इनके मंदिर बनाये और इनको ध्यान कर इनके आचरण से प्रेणना प्राप्त करने लग गए, ये लोगों के रोम – रोम और मन – मंदिर में बस गए, इनके अवतरण से भारत भूमि धन्य हो गयी, पूजनीय हो गयी और वन्दनीय हो गयी, लोगों ने इनके मार्ग का अनुसरण किया, ये देश और इसकी माटी सदा – सदा के लिए पवित्र हो गयी और इतनी पवित्र की देवता भी अवतरण की कामना करने लगे |

भाइयों के प्रेम की भी ऐसी मिसाल दुल्लभ है, आज जहाँ भाइयों में झगड़ा ही अधिक सुनने को मिलता है, वहीँ लक्ष्मण जी भाई के प्रेम में और बड़े भाई के प्रति अपने कर्तव्य को जानकर उनके साथ हो लिए, भरत जी सारा राज्य पाकर भी दौड़कर चित्रकूट जाते हैं और वो प्रभु का मानकर उनके चरणों में समर्पित कर आते हैं, और वापस आकर उनकी खड़ाऊओं को सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर राज्य का उत्तरदायित्व सँभालते हैं और एक तपस्वी की भाति प्रजा का पालन करते हैं और वहीँ शत्रुघ्न जी राजमहल और राज परिवार की जिम्मेदारी सँभालते हैं |

हम आज हर प्रकार से स्वयं और बंधु – बांधवों के भले की ही कामना करते हैं, और कठिन निर्णय लेने से डरते हैं और न उन्हें लेने देते हैं फिर चाहें वो कितना भी न्यायोचित क्यों न हो, पर अगर उससे लोगों के बिछुड़ने का डर है, उनके दूर जाने की संभावना है और आगे जाकर संघर्ष की सम्भावना है तो हम उसे अस्वीकार कर देते हैं भला कौन सुख – सुविधाओं का त्याग चाहता है |

पर यहाँ पर एक ऐसे चरित्र हैं जिनके राम जामाता हैं, सीता पुत्री हैं और सारे अधिकार उनके निहित हैं और वो क्या अद्भुत निर्णय लेते हैं | प्रसंग इस प्रकार है,

चित्रकूट में जब भरत जी प्रभु श्री राम को वापस अयोध्या ले जाने के लिए गुरु वशिष्ठ, माताओं, शत्रुघ्न, पूरी प्रजा और सेना सहित आते हैं और सब प्रकार के प्रयासों के उपरान्त भी जब प्रभु पिता की आज्ञा का हवाला देकर कि उनके लिए 14 वर्ष वनवास की आज्ञा है और मना कर देते हैं तो भरत जी गुरु वशिष्ठ की शरण में जाते हैं और उनसे अनुनय विनय करते हैं कि वो भैया श्री राम को अयोध्या वापसी की आज्ञा दें, क्योंकि वो गुरु हैं और प्रभु उनकी आज्ञा को अनसुना नहीं कर सकते हैं और तभी एक दूत प्रवेश करता है जो ये समाचार सुनाता है कि राजा जनक चित्रकूट में प्रवेश कर चुके हैं और कुछ ही क्षणों में आश्रम पधारने वाले हैं और ये सुनकर गुरूजी सभी भाइयों को उनकी आगवानी का आदेश देते हैं |

जब राजा जनक का सबसे मिलना हो जाता है और भरत जी की वेदना उनके कानों में पड़ती है तो गुरुदेव उनसे ही इस समस्या का निदान करने का आग्रह करते हैं जिसे वो सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं और अगले दिन एक सभा का आयोजन होता है जिसमें अयोध्या की प्रजा समेत हर कोई भाग लेता है | आयोजन से एक दिन पहले प्रजा जन आपस में यही विचार – विमर्श करते हैं कि राजा जनक इस निर्णय के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं, वे वैसे भी राजा कम और ऋषि ज्यादा हैं और महान मुनि अष्टावक्र के शिष्य हैं और जो भी निर्णय करेंगे उसी में सबका कल्याण होगा | राजा जनक का एक नाम विदेह राज भी है, वो जिसे देह का कोई मोह नहीं और इसी लिए जानकी जी वैदेही भी कही जाती हैं |

प्रजा जनों में उल्लास है और ये भरोसा है कि प्रभु श्री राम राजा जनक की बात नहीं टालेंगे और वापस राजधानी लौट चलेंगे | लोगों का ये भी कहना और मानना था कि राजा जनक श्री राम के ससुर हैं और माता सीता के पिता तो वो स्वाभाविक रूप से अपनी पुत्री और दामाद का वनवास नहीं चाहेंगे और उन्हें वापस लौटने की आज्ञा देंगे क्योंकि भला कौन बाप अपने बच्चों का सुख नहीं चाहता है और इसीलिए सब यही मानकर चल रहे थे और उत्साहित थे कि कल का दिन तो उत्सव का दिन है और एक तरह से प्रजा का ये मानना स्वभाविक भी था, और तो और भरत जी और माताएं भी आशान्वित थीं | रात सबकी एक – दूसरे से भेंट और कुशल – क्षेम पूछने और इसी बात पर विचार करने में व्यतीत हुई |

इधर राजा जनक का मन शांत था पर अंदर ही अंदर कुछ उधेड़बुन भी थी, एक तरह से धर्मयुद्ध छिड़ा था और इसमें जहाँ एक और भरत के प्रेम का अथाह समुन्दर हिलोरे मार रहा था वहीँ दूसरी और श्री राम सा कर्तव्य के मार्ग पर अविचलित, अटल और हिमालय सा व्यक्तित्व जो पिता के वचन की मान रखने को समर्पित थे | यहाँ पर रानी सुनैना उनकी मनःस्थिति को समझ रही थीं और उनके लिए तो परिस्थिति और भी जटिल थी, भला कौन माँ अपनी पुत्री को सुखी नहीं देखना चाहती और राजा जनक को कह सकती थीं कि श्री राम को वापस चलने की आज्ञा दें क्योंकि उन्हें पता था की श्री राम राजा जनक की आज्ञा नहीं टालेंगे, पर उन्होंने पति से कुछ नहीं कहा बस यही कहा कि वो जो भी निर्णय लेंगे उन्हें उस पर पूरा विश्वास है और वो उनके साथ हैं | कितना कठिन रहा होगा माता के लिए वो क्षण और कैसा धर्म और न्यायोचित विचार किया महारानी ने, सब प्रकार से जानते हुए भी कि वो चाहें तो श्री राम अयोध्या लौट सकते हैं, पति से कुछ नहीं कहा | धन्य हो वो नारी और धन्य है भारत भूमि |

बात ये भी है कि जरुरी नहीं जिसे हम सुख समझ रहे हों वो ही सही में सुख हो, आत्मा विरुद्ध और धर्म विरुद्ध आचरण से आखिर में हानि ही होती है भले ही प्रारंभ में कितना भी सुख क्यों न मिले |

तो प्रभात हुआ और सभा बैठी | एक ओर गुरु वशिष्ठ थे, दायीं ओर राजा जनक, पास में भरत, शत्रुघ्न और सामने श्री राम और लक्ष्मण | माताएँ भी पास ही थीं और थोड़े दूर पर प्रजा जन भी इस अद्भुत दृश्य के साक्षी बन रहे थे और आकाश में स्थित देवता भी युगों – युगों में घटित होने वाले इस तरह के शायद पहले और आखिरी दृश्य के साक्षी बन रहे थे, बड़ा कौतूहल था और सबकी निगाहें गुरु वशिष्ठ और राजा जनक पर टिकी थीं |

सभा आरंभ हुई और गुरु वशिष्ठ ने भरत जी का मंतव्य कह सुनाया और विश्वास जताया कि विदेह राज इस का अवश्य निष्पक्ष समाधान करेंगे | पहले भरत जी ने अपने मन की बात रखी, हर प्रकार से अनुनय – विनय की पर श्री राम अपनी प्रतिज्ञा से जरा भी टस से मस नहीं हुए, हर प्रकार से उन्होंने अपनी बात मनाने का प्रयास किया पर जब कैसे भी बात नहीं बनी तो भावुकता में यहाँ तक कह दिया कि अगर भैया राम वापस राज लेने को राजी नहीं हुए तो यहीं अन्न – जल त्याग देंगे, ये सुनते ही प्रभु भावुक हो गए और गुरुदेव से बोले, हे गुरुदेव रक्षा करो |”

गुरुदेव ने राजा जनक की और देखा और उनसे निर्णय देने का अनुरोध किया और सब बातें सुनकर राजा जनक बोले, “ हे राम ! और हे भरत ! आप दोनों धन्य हैं, एक ओर जहाँ अगाध प्रेम है वहीँ दूसरी ओर धर्म और कर्तव्य है और इसमें किसका पड़ला भारी है, ये कहना जरा मुश्किल है | राज्य की लालसा के लिए तो युद्ध हुए हैं और होते रहेंगे पर यहाँ ये जो अनोखा प्रेम युद्ध चल रहा है, ये न कभी हुआ है और न आगे होगा | मेरे लिए इस बात का निर्णय करना बड़ा दुष्कर प्रतीत हो रहा है, अब मैं भगवान आशुतोष का ध्यान करता हूँ और वो जैसी प्रेणना देंगे वही बात कहूँगा |” और ये कह कर कुछ देर ध्यान में बैठ गए |

चारों ओर एक अजीब सी छटपटाहट थी, सब व्याकुल हो रहे थे कि महाराज जनक क्या निर्णय सुनाने वाले हैं, और तभी उन्होंने आँखें खोलीं और बोले, “ हे भरत ! प्रेम से बड़ा कोई धर्म नहीं है, प्रेम का कोई मोल नहीं होता, प्रेम निस्वार्थ होता है, भक्त जब प्रेम में व्याकुल होकर भगवान को पुकारता है और जब ये प्रेम अपनी पराकाष्ठा में अनन्य भक्ति का रूप धारण कर लेता है तो स्वयं भगवान् भी अपने ही बनाये नियम तोड़कर उसके सन्मुख प्रकट हो जाते हैं और इस दृष्टि से तुम्हारा पड़ला भारी है, श्री राम भारत का प्रेम अनन्य, निःस्वार्थ और निश्छल है और वो तुम्हारा अनन्य भक्त है | हे भरत ! तुम्हारे प्रेम की जीत हुई |” ये बात सुनकर सब प्रेम के सागर में डूब गए, भरत जी की ख़ुशी का तो जैसे ठिकाना ही न हो, लक्ष्मण जी भी अत्यंत प्रसन्न हुए और तभी राजा जनक आगे बोले, “ भरत ! प्रेम का भी विधान होता है और उसके भी कुछ नियम होते हैं और सदा निःस्वार्थ होता है और अपने प्रेमी को सदा कुछ देना चाहता है, उसके सुख और उसकी प्रसन्नता के लिए सब कुछ लुटा देना चाहता है तो अब तुम ये निर्णय करो कि तुम अपने भैया राम को क्या दे सकते हो |”

भरत जी बोले, “ प्राणों से बढ़कर कोई दूसरी वस्तु नहीं है और मैं अपने प्राण दे सकता हूँ |” “ प्राण देना कभी – कभी सरल होता है, किन्तु कभी – कभी अपने प्रेमी की लिए जीना कठिन होता है और यदि तुम सच्चे भक्त हो तो श्री राम के चरणों में बैठकर उन्हीं से पूछो कि उनकी प्रसन्नता किसमे है ? और वो जो कहें वही काम प्रेम की पूजा समझ कर करो |

भरत जी गंभीर हो गए, ऑंखें भर आयीं और ऐसा लगा जैसे कोई पर्दा सामने से उठ गया हो और बोले, “ महाराज, आज आपके वचनों से मेरे आगे से स्वार्थ के पर्दे गिर गए, आज तक मैं केवल अपने कर्तव्य को, अपने स्वार्थ को और अपनी कीर्ति को ही सही समझ रहा था, पर फिर भी आपने मुझे जिता दिया, आप महान हैं,” और ये बोलकर भाई के चरणों में बैठ गए और बोले मेरे लिए क्या आज्ञा है ?

भरत जी की ऐसी दशा देखकर श्री राम ने उन्हें ह्रदय से लगा लिया और कहा, “भाई आज मैं तेरे प्रेम के आगे हार गया, जो राज तुम मुझे देने आये हो इसे मैं स्वीकार करता हूँ |” ये बात सुनते ही वहाँ स्थित लोगों में हर्ष की लहर दौड़ गयी, माताएँ, बंधु – बांधव और प्रजा सब उत्साहित हो गयी, पर प्रभु की बात अभी पूरी नहीं हुई थी, उन्होंने आगे कहा, “ पर पिता की आज्ञा का मान रखने के लिए मुझे 14 वर्ष का समय तो वन में व्यतीत करना होगा और तब तक मेरे स्थान पर तुम उस राज्य को संभालो |

भावुक होकर भरत जी बोले, “ बड़े निर्मोही हो भैया, प्रेम का कोई मोल नहीं आँका,

श्री राम बोले, “ प्रेम किया है तो बिन मोल बिक जाओ |”

बात अत्यंत कठिन थी पर और कोई रास्ता भी तो नहीं था, भरत जी बोले, “ शायद ये 14 वर्ष का वियोग ही मेरा प्रायश्चित है, भैया अपनी चरण पादुका मुझे दे दो |”

आगे तो आपको पता ही है, श्री राम की चरण पादुका अपने चरणों में रखकर महात्मा भरत ने प्रस्थान कियां, उन्हीं को राज सिंहासन पर रखा और उन्हीं की ही छाँव में राज – काज संभाला |

जरा वो क्षण तो सोचिये, सबको पता है की फिर चौदह वर्ष उपरान्त ही मिलना होगा, 14 वर्ष कितनी लम्बी अवधि होती है, हम और आप तो आज कुछ महीने भी परिवार से अलग रहने की कल्पना नहीं कर सकते जबकि हर तरह के संचार के साधन उपलब्ध हैं और रोज बात कर सकते हैं | उन माताओं के ह्रदय पर क्या बीत रही होगी जिनके पुत्र उनसे बिछुड़ रहे थे, और ये पता नहीं कि आगे मिलना हो भी पायेगा या नहीं, पुत्रों और भाइयों की दशा सोचिये, सीताजी की दशा समझिये और प्रजा की भी | बड़ा भारी पल है, मनुष्य पूरी तरह से टूट जाते हैं पर यहाँ सब अपने – अपने धर्म पर अडिग, अविचलित और अचल | धन्य हो भारत भूमि और वास्तव में इन महापुरुषों के चरण कमलों से ये और भी धन्य हो गयी, यहाँ का कण – कण पवित्र हो गया और जन – जन का उद्धार हो गया |

मंगल भवन अमंगल हारी, द्रवहूँ सुदसरथ अजिर बिहारी ||

राम – सिया राम, सिया – राम जय – जय राम ||

श्री राम अनंत हैं और उनके गुण भी अनंत हैं, रामायण के हर प्रसंग में मानव के लिए एक संदेश छिपा है कि कैसे मानव दुर्लभ और कठिन स्थित में भी धैर्य और साहस से विजय प्राप्त कर सकता है | श्री राम गुणों की खान होते हुए भी ऋषि मुनियों के आश्रम जाते हैं, और उनके उपदेश ग्रहण करते हैं, उनके आदेशों का पालन करते हैं और आज बड़ा आदमी किसी को कुछ समझता ही नहीं है |

इसी सत्संग का फल होता है कि उन्हें एक के बाद एक तत्वदर्शी और पूर्ण ज्ञाता ऋषियों का संग मिलता है, आगे की रुपरेखा पता चलती है और वनवास के इस काल में जिसमे वे मानवता की रक्षा के लिए दुष्टों का संहार तो करते ही हैं साथ ही साथ स्वयं भी मुनियों के सत्संग का एक भी अवसर नहीं गवाते हैं, और इसी प्रकार पद यात्रा करते हुए वनवास के अंतिम वर्षों में ऋषि अगस्त्य के आश्रम पहुँचते हैं |

ये आश्रम राक्षसों की अंतिम छावनी, जहाँ से उनका क्षेत्र प्रारंभ होता था उसके बिल्कुल समीप था, यहाँ से उत्तर में दूर – दूर तक मानवों की कोई बस्ती नहीं थी और नीचे दक्षिण में भारत के अंतिम छोर तक राक्षसों का राज्य था, इतना सब होते हुए भी ये आश्रम सुरक्षित था क्योंकि ऋषि अगस्त का तेजपुंज ऐसा था कि उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई भी प्राणी वहाँ प्रवेश तक नहीं कर सकता था |

महर्षि सुतीक्ष्ण संग प्रभु ने आश्रम में प्रवेश किया, जहाँ उन्हें कुछ दिव्य अस्त्रों की प्राप्ति हुई और महामुनि अगस्त्य के आदेश पर गोदावरी तट पर कुटी बनाकर रहने लगे | ऋषि अगस्त्य ने उनसे कहा था कि वो वनवास का बचा समय उनके आश्रम में ही जप – तप कर व्यतीत करें पर प्रभु ने कहा उन्होंने असुरों के अंत की प्रतिज्ञा की है और इसलिए उन्होंने मुनिवर से वो स्थान पूछा जहाँ से असुर दण्डकवन में प्रवेश करते थे, और उन्हीं की आज्ञा से जनस्थान के पास गोदावरी तट पर पंचवटी में पर्ण कुटीर बनाकर रहने लगे |

तो अच्छी या बुरी हर स्थित और परिस्थिति में उन्हें कर्म पथ का भान रहा और वे उससे जरा भी विचलित नहीं हुए और आज हम सब जरा सा सुख में विघ्न पड़ा नहीं कि चिल्लाने और प्रश्न करने लगते हैं, सब कुछ हो जाए चाहें धरती इधर से उधर हो जाये पर सुख – सुविधा पर आंच नहीं आनी चाहिए | बारिश हो न हो, ऐसी तो है गर्मी से बचने के लिए, और अगर बारिश हो भी रही हो और सिर्फ पंखे से ही काम चल सकता है तो भी ऐसी चलाएंगे और कम्बल ओढ़ कर सोएंगे भले ही वो कितनी ही गर्म हवा वातावरण में छोड़ रहा हो तो हमें क्या और उसके चलने में जो बिजली खर्च होती है उसे बनाने के लिए कितना भी कोयला या गैस जले और ग्रीन हाउस गैसें वातावरण में फैलें और पृथ्वी को और गर्म करें पर हमें क्या, और कोई हमें शिक्षा न दे, हाँ ग्लोबल वार्मिंग की शिकायत भी हमी करेंगे और ट्विटर और फेस बुक पर इसकी खूब चर्चा करेंगे |

इसी पर्ण कुटीर से सीता जी का अपहरण हुआ, जटायु से उन्हें ज्ञात हुआ कि माता को लंका का राजा रावण ले गया है, जटायु पक्षी थे, गिद्ध थे जिनकी राजा दशरथ से मित्रता थी और भगवान श्री राम ने उन्हें पिता जैसा ही सम्मान दिया था | यहाँ पर भी एक संदेश छुपा है, गिद्ध बड़ी नीची जाति का प्राणी माना जाता है और एक आर्य की उससे मित्रता उस समय बड़ी बात थी, पर ये भी प्रभु का चरित्र है कि वो ऊँच – नीच, बड़ा – छोटा कुछ नहीं मानते उनके लिए सब प्राणी समान हैं, अतः हमें भी प्राणियों के दोष न देखते हुए उनके गुणों पर ध्यान देना चाहिए और उनका सम्मान करना चाहिए, उचित आदर – व्यवहार से लोग सन्तुष्ट होते हैं और वक्त के समय काम आते हैं |

इस विकट परिस्थिति में साधारण मानव टूट सकता है, उस समय कहाँ जाते, चारों और घने वन, दुर्गम पर्वत और जंगली जानवर और तो और यहाँ एक से बढ़कर एक दुर्दांत राक्षस वास करते थे | वनवास की अवधि भी पूर्णता की ओर थी, कोई और होता तो प्रभु की इच्छा मानकर वापस उत्तर की ओर लौट जाता, पर मानव को असाधारण तो उसके कर्म ही बनाते हैं, और ऐसा ही असाधारण कार्य था सीता माता की खोज का | भाई सहित दक्षिण दिशा की और बढ़ चले, कुछ अता – पता नहीं बस सीता जी की खोज में उनका नाम पुकारते आगे बढ़े जा रहे थे | जब नीयत ठीक हो और आप कर्तव्य के मार्ग पर आगे बढ़ रहे हों तो फिर ईश्वर भी व्यक्ति की सहायता करते हैं | मार्ग में कबंध नामक राक्षस मिला, जिसकी विशाल भुजाओं को लक्ष्मण जी ने खड्ग से काट दिया, तब उसने प्रभु को पहचाना क्योंकि उसकी भुजाओं को काटना और किसी के बस की बात नहीं थी और उद्धार होने पर उसने गन्धर्व रूप प्राप्त किया और बताया कि आगे दक्षिण दिशा में जाने पर उनकी भेंट महाबली सुग्रीव से होगी और जब प्रभु ने वहाँ तक पहुँचने का मार्ग पूछा तो उसने बताया कि किष्किन्धा नामक जगह पर पम्पा सरोवर के पास मतंग ऋषि का आश्रम मिलेगा जहाँ उनकी शिष्या शबरी रहती हैं और वो सुग्रीव तक पहुँचने में उनकी सहायता करेंगी |

शबरी महातपस्वनी थीं, और श्री राम के दर्शनों की इच्छा लिए अपना पल – पल काट रही थीं, रोज मार्ग में फूल बिछातीं कि प्रभु आएंगे और ऐसा करते – करते बहुत वर्ष व्यतीत हो गए थे, पर उन्हें विश्वास था और मतंग ऋषि ने शरीर छोड़ने से पहले उनसे कहा था कि उन्हें श्री राम के दर्शन होंगे, और प्रभु के दर्शन हुए | लगभग 12 वर्षों तक काँटों और उबड़ – खाबड़ पथरीली राहों पर चलते हुए प्रभु जब आश्रम के निकट पहुँचते हैं तो देखते हैं आगे रास्ता फूलों से बिछा हुआ है और एक बूढी औरत फूल बिछाती जाती थी | पहले तो उसने प्रभु को न पहचानने के कारण रोक दिया और फिर परिचय होने पर भाव से विकल हो गयी, अश्रुओं से चरण पखारे और फिर श्री राम फूलों की सेज से होते हुए आश्रम की राह में आगे बढे और जैसे – जैसे दोनों भाई आगे बढ़ते जाते थे शबरी पोटली से और फूल निकालकर राह में बिछाती जाती थी | बड़ा सुन्दर दृश्य है, मानवता के कल्याण का बीड़ा उठाए, नंगे पांव 12 वर्षों से दर – दर भटकते दो भाई जो राहों पर न जाने कितने सांप, बिछुओं, कीड़े – मकोड़ों, कंकर – पत्थर, काटों से लेकर तपती धरा और न जाने कितनी विकट परिस्थितियों का सामना हँसते – हँसते करते आये थे आज एक भक्त द्वारा प्रेम पूर्वक अर्पित पुष्पों की सज्जा पर चल रहे थे, कितना आनंद मिला होगा माँ शबरी को ये देखकर, कितना आनंद मिला होगा देवताओं को ये देखकर और कितना सुख मिला होगा प्रभु को शबरी की ये भक्ति देखकर, धन्य हो भारत भूमि |

यहाँ प्रभु ने माँ शबरी के जूठे बेर खाए शायद आज के सन्दर्भ में ये बड़े अन्हाईजीनिक होंगे, परन्तु प्रेम की मिठास कुछ ऐसी ही होती है और फिर भगवान तो भाव के भूखे हैं, शबरी न जाने कब से रोज वाटिका से फल तोड़ कर लाती थी और फिर उन्हें चख कर देखती थी कि वो मीठे हैं य नहीं और ये करते हुए उसे ये विचार बिल्कुल नहीं आता था कि ये जूठे हो जाएँगे उसे तो बस इस बात की चिंता थी कि कहीं प्रभु को कोई ऐसा फल न चला जाये जो रुचिकर न लगे और वो बड़े प्रेम से एक – एक फल चखकर टोकरी में सजाती थी | भगवान् भक्त के मन की बात जान जाते हैं और उन्होंने वे फल बड़े चाव से खाए | आज सब कुछ है, महंगे से मंहगा और बढ़िया से बढ़िया प्रसाद है पर बस भाव की कमी है, दिखावा ज्यादा है और सच्चाई कम | प्रसाद का मोल लगता है, 51/101/151 और आगे तो कोई लिमिट ही नहीं, बल्कि जीवन में प्रायः हर क्षेत्र में भावना विलुप्त हो गयी है बस दिखावा, छल और प्रपंच ही ज्यादा नजर आता है, सामने से मीठा बोलने वाले हटते ही गाली देना प्रारंभ कर देते हैं और बस मैं ही सही हूँ और मुझे ही सब ज्ञात है और बाकी सब मूर्ख हैं, हर व्यक्ति बस इसी विश्वास में जी रहा है | लोगों को लगने लगा है जैसे सब कुछ वो चला रहे हैं, घर – बाहर – समाज और कुछ बहुत बड़े लोगों को तो यहाँ तक लगता है कि पूरा संसार वही चला रहे हैं, सब बस अपने को ही सर्वोच्च समझ के एक अलग ही धुन में चले जा रहे हैं, अरे ऐसा कर लो वैसा कर लो आगे देखना 5 साल बाद, दस साल बाद या रिटायरमेंट के बाद कितना फायदा होगा, अरे प्रॉपर्टी ले डालो बहुत फायदा होगा, ले लो शेयर बहुत बढ़ने वाला है, जमीन ये वाली ले डालो दस साल बाद करोडपति हो जाओगे |

सब ले डालो और जब दस साल बाद न पीने का पानी मिलेगा, श्वास लेने के लिए साफ़ हवा और न शुद्ध भोजन तब वो करोड़ खाना, पीना और सांस लेना | क्योंकि हम अकेले ही करोडपति नहीं होंगे और भी लाखों होंगे और सबके दिमाग में वैसे ही आईडिया आए होंगे |

शबरी के बहुत अनुरोध करने पर प्रभु ने उसे नवदा भक्ति का उपदेश दिया, नवदा यानि भक्ति के नौ प्रकार जिनसे भक्ति सम्पूर्णता को प्राप्त होती है, और इसके पश्चात उसने योग विद्या द्वारा शरीर त्याग दिया और उस लोक को प्रस्थान किया जहाँ गुरु मतंग कुछ वर्ष पहले प्रस्थान कर गए थे | शबरी के बताये मार्ग पर प्रभु ऋषय्मुख पर्वत की ओर आगे बढ़े, पर्वत शिखर तो दिख रहा था पर वहां पहुँचने का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था | दोनी भाई इधर से उधर भटक रहे थे, माता शबरी ने उन्हें बताया था कि जब वे सुग्रीव से मिलेंगे तो वहाँ उनकी मुलाकात उनके परम भक्त हनुमान जी से होगी, और प्रभु की पहली मुलाकात भी हनुमान जी से ही हुई | हनुमान जी विप्र वेश में थे और सामने आने पर अपने जबर्दस्त संस्कृत सम्भ्राषण से प्रभु को मन्त्र – मुग्ध कर दिया, ऋग्वेद – अथर्ववेद – सामवेद और यजुर्वेद के सूत्रों का भरपूर प्रयोग किया और इस प्रकार प्रभु का परिचय प्राप्त हुआ |

पर परिचय मिलते ही उन्हें अपनी भूल का भान हुआ और पछतावा भी हुआ पर साथ ही साथ प्रभु से मिलने की बड़ी प्रसन्नता भी हुई | प्रभु ने हनुमान जी को गले से लगा लिया, भक्त और भगवान् का मिलन ऐसा था की सबकी आंखे भर आयीं | हनुमान जी ने पूछा, “ मैं तो ठहरा वानर और शायद इसलिए प्रभु को पहचान नहीं पाया पर प्रभु भी मुझे पहचान नहीं पाए इसमें अवश्य मेरा ही दोष होगा |

श्री राम तो हनुमान जी को देखते ही पहचान गए थे, बस प्रकट नहीं किया | वे बोले, “हम तो बस तुम्हारी पाण्डित्य युक्त और ज्ञान से भरी हुई बातें सुन ही मंत्रमुग्ध हो गए थे |” “ यहीं तो भूल हो गयी प्रभु ! जहाँ भक्त ने भगवान् के आगे ज्ञान – विज्ञान का प्रदर्शन किया, वहीँ भगवान् कहने लगते हैं कि जाओ अब तुम मुझे अपने ज्ञान द्वारा प्राप्त करो,” हनुमान जी बोले | “ तुमसे तो सपने में भी भूल नहीं हो सकती हनुमान ! तुम तो बस अपने गुप्तचर धर्म का पालन कर रहे थे |” हनुमान जी बड़े विनम्र थे, वे तो बस भेद जानने का प्रयास कर रहे थे और प्रभु ने उनके ह्रदय की असली भावना जो कि शुद्ध और निर्मल थी उसे पहचान लिया था |

कई बार ऐसा होता है कि व्यक्ति दो – चार पुस्तकें पढ़ जाता है, कुछ ज्ञान कहीं से प्राप्त कर लेता है और अपने को बड़ा ज्ञानी समझने लगता है जबकि उसे वास्तविक अनुभव बहुत थोड़ा ही होता है और तो और वो अपने माता – पिता से भी बहस कर लेता है और अपने को बहुत बड़ा जानकार मानने लगता है | वो बड़ी – बड़ी बातें करता है, उपदेश देता है जैसे शरीर तो व्यर्थ है, माया है असली तो आत्मा है आदि – आदि पर भूल जाता है की ये उपदेश भी उसका शरीर ही दे रहा है न कि आत्मा | जिस प्रकार बिजली का प्रयोग करने के लिए यंत्र बनाने पड़ते हैं उसी प्रकार आत्मा का प्रयोग करने के लिए भी शरीर बनाने पड़ते हैं और इसी के द्वारा आत्मा का असली उद्देश्य जिसकी परिणिति मोक्ष है वो पूरी होती है | और वैसे भी इतना सब दिखावा करने की क्या आवश्यकता ? निर्मल मन से प्रभु का गुण गान करो और जिसे जैसा मार्ग सही दिखता है, भक्ति – ज्ञान या कर्म उसे उस पर चलने दो हर मार्ग वहीँ तो जाता है बस मन में अगाध श्रध्दा और विश्वास होना चाहिए | प्रभु कहते भी हैं :

निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल – छिद्र न भावा |

और सभी मार्गों में भक्ति का मार्ग सबसे उपयुक्त माना गया है क्योंकि भक्त जैसा भी हो, ज्ञानवान, अज्ञानी या अनपढ़ पर स्वभाव का निर्मल और मन का सच्चा होता है पर ज्ञानी कभी – कभी अहंकार में चूर होकर गलत काम भी कर जाते हैं, जैसे रावण बहुत बड़ा ज्ञानी था पर अहंकार वश दुर्गति को प्राप्त हुआ | यहाँ पर एक और बात आती है कि जिन त्रिकाल दर्शी महामुनि अगस्त्य ने उन्हें पंचवटी का मार्ग बतलाया था, प्रभु उनसे ही जाकर पूछ सकते थे कि सीता जी कहाँ हैं और उन्हें कौन ले गया है और वहाँ कैसे जाया जाय पर प्रभु ने स्वयं पर विश्वास रखते हुए माता की खोज का निर्णय लिया चाहें इस विराट कार्य के लिए उन्हें दर – दर भटकना ही क्यों न पड़ा हो |

हम लोग साधारण लोग हैं, बड़ी मुसीबतों पर हमारा टूटना स्वभाविक है और इसके लिए हम समाज और परिवार के सहयोग पर आश्रित होते हैं पर कई बार छोटी – छोटी बातों और समस्याओं के लिए भी हम दूसरे का मुँह ताकने लगते हैं जिनका हमें स्वयं और ईश्वर पर भरोसा रखते हुए सामना करना चाहिए और शायद इसीलिए भी प्रभु श्री राम का चरित्र आदर्श चरित्र कहा जाता है, आदर्श और मर्यादा पुरुषोत्तम |

सुग्रीव से मिलने पर जामवंत जी ने राजनैतिक संधि का प्रस्ताव रखा कि हम आपकी सहायता करते हैं फिर आप हमारी सहायता करें और ऐसा होने पर दो राज्यों में परस्पर संधि हो सकती है जिसे प्रभु ने तुरंत ही नकार दिया | उन्होंने कहा, “ पहले आप मेरा काम करो और फिर मैं आपका काम करता हूँ ऐसा आचरण तो एक व्यापारी करता है, और दूसरा राजनीति की नींव तो सर्वदा स्वार्थ पर टिकी होती है और मेरी प्रकृति में स्वार्थ का कहीं कोई स्थान नहीं है |” तब जामवंत जी के पूछने पर उन्होंने वो नाता बताया जो सब नातों से बड़ा है और वो है मित्रता का नाता जिसकी नींव सदा प्रेम पर ही रखी होती है |

बात बड़ी सच्ची है, संधि राजा की राजा के साथ होती है, बराबर वालों में होती है पर मित्रता तो किसकी किसी के भी साथ हो सकती है, राजा की रंक और अमीर की गरीब के साथ भी हो सकती है और इसकी नींव प्रेम पर टिकी होती है जो सदा सर्वथा निस्वार्थ होता है |

श्री राम ने सुग्रीव को सहायता का वचन दिया और किष्किन्धा का राजा बनाया | श्री राम को ज्ञात था कि सुग्रीव इस समय कमजोर हैं, गिने – चुने लोग ही उनके साथ हैं और बाली सर्वप्रकार से शक्तिशाली है, राजा है और पूरी वानर सेना है और उनकी भार्या की खोज में अधिक मददगार हो सकता था फिर भी उन्होंने सुग्रीव का साथ दिया, क्योंकि बाली के कार्य अनैतिक और धर्म विरुद्ध थे और प्रभु तो धर्म का साथ सदा देते हैं या कहा जाय तो जहाँ प्रभु होते हैं वहीँ धर्म होता है |

सुग्रीव को महाराज बनाने के बाद जब माता सीता की खोज की बात आयी तो सब इस बात को लेकर उतावले थे कि अब विलम्ब नहीं होना चाहिए और सबको मिलकर माता की खोज प्रारंभ कर देनी चाहिए अब बात इतनी सी थी कि प्रभु आज्ञा दें और खोज आरंभ हो और सबको उम्मीद भी यही थी कि प्रभु तो अविलम्ब खोज का आदेश दे ही देंगे पर प्रभु ने आदेश दिया कि अभी प्रतीक्षा करनी चाहिए | सब चौंक गए, लक्ष्मण जी के तो जैसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था, और पूछा भैया अब किस बात का विलम्ब ? प्रभु बोले, अभी चौमास है, भीषण बारिश में नदी – नाले सब उफान पर होंगे और इस समय खोज के कार्य में हर तरह की बाधा आयेगी अतएव हमें चार मास प्रतीक्षा करनी चाहिए | और कहा महाराज सुग्रीव ये चार वर्ष आप अपने राज्य को सुव्यवस्थित करने में लगायें और तत्पश्चात समस्त वानरों को संगठित कर इस महाभियान का श्री गणेश किया जायेगा |

और कोई मनुष्य सदा यही चाहेगा कि पहले उसका कार्य हो पर यहाँ प्रभु ने पहले सुग्रीव का कार्य किया, और जब ये कार्य पूर्ण हुआ तो हर कोई उम्मीद कर रहा था कि प्रभु अब खोज का आदेश देंगे, और ऐसा सोचना अनुचित भी नहीं था, भला जिसकी धर्म पत्नी की खोज खबर न मिल रही हो वो कितना व्याकुल होगा उसके लिए तो जगत में ये ही सबसे महत्वपूर्ण और सर्वप्रथम करने योग्य कार्य होना चाहिए पर यहाँ श्री राम ने अद्भुत धैर्य और समझ का परिचय दिया | बारिश में खोज करवाने से बहुत से वानरों की जान को खतरा हो सकता था, परिस्थितियाँ भी पूरी तरह से विकट रहतीं और उन्होंने जन – हित को ध्यान में रखकर ये निर्णय लिया जबकि इससे बहुमूल्य समय नष्ट होने का खतरा था पर जैसा कि उन्होंने कहा उनकी प्रकृति में स्वार्थ का कोई स्थान नहीं है |

क्या आज कोई भी मनुष्य चाहें वो शासक हो या आम अपने हितों को भुलाकर दूसरों के हित के बारे में सोच सकता है ? इतनी सूझ – बूझ या समझ का परिचय दे सकता है ? राम ऐसे ही पूजित नहीं हैं और ऐसे ही महामानव नहीं कहे जाते हैं व्यक्ति अपने कार्य से महान बनता है, इस धरा पर ही मनुष्य देवता बनता है और यहीं भगवान् |

यहाँ पर और एक बात आती है वो है, मनुष्य का मानसिक संतुलन | हमारी मनोदशा कुछ इसप्रकार की है की हम जल्दी खिन्न हो जाते हैं, कुछ मन का न हो, किसी ने कुछ कह दिया हो, कुछ गलत हो जाये तो मन उदास हो जाता है, हम थका हुआ और हारा हुआ अनुभव करने लगते हैं, कई बार तो व्यक्ति बिलकुल ही टूट जाता है और कोई अप्रिय कदम उठा लेता है | हम पूछने लगते हैं कि मेरे ही साथ ही सब क्यूँ ? अच्छा – बुरा सब के साथ होता है, कठिनाइयाँ सब के जीवन में आती हैं और ये बात भी ठीक है कि जो व्यक्ति सदमार्ग पर चलता है उसके जीवन में तो और भी कठिनाइयाँ आती हैं, और व्यक्ति भगवान पर दोष देने लगता है, व्यथित हो जाता है और कई बार तो सदमे में भी चला जाता है पर राम नाम लेने से सारी पीड़ा और विपदा हर जाती है, थके मन को एक विश्राम मिलता है, व्यक्ति को एक सहारा मिलता है और विपत्तिओं से लड़ने का हौसला मिलता है |

हनुमान जी कहते भी हैं,

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई, जब तव् सुमिरन भजन न होई ||

अर्थात हनुमान जी ने कहा – हे प्रभु ! विपत्ति तो वही (तभी) है जब आपका भजन – स्मरण न हो | इसलिए हर क्षण भगवत भजन – स्मरण करते रहना चाहिए |

यहाँ पर एक ऐसे महामानव हैं, जिनका जब राज्याभिषेक होना था, उसी क्षण राज्य छिन गया, और तो और 14 वर्ष का कठोर वनवास मिला; माताओं, बंधु – बांधवों, प्रजा सबसे दूर हो गए, पर शांत रहे और प्रसन्न रहे, प्रित्याग्या मानकर सहर्ष वन को चल पड़े, पिताजी का विक्षोभ सहना पड़ा, अंतिम दर्शन तक नहीं हुए, पर शांत रहे | भरत जी लिवाने आए पर धर्म पर अटल रहे, वन – वन भटकते रहे और असुरों का संहार करते रहे ताकि नर – मुनि सब सुरक्षित रह सकें, पत्नी तक का वियोग सहा पर धर्म पर अडिग, अविचल और सत्य पथ से तनिक भी विचलित नहीं हुए, सदा सर्वदा सत्यनिष्ठ रहे और मानसिक रूप से शांत और संतुलित रहे | विधि ने कोई ऐसा मौका नहीं छोड़ा जब उन्हें कष्ट न मिला हो | भला इससे अधिक मनुष्य और क्या दुःख – दुविधा भोग सकता है ?

ऐसे महामानव को शत – शत नमन |

राम सिया राम – सिया राम जय जय राम ||

सुन्दरकाण्ड

चौमासा व्यतीत हुआ और अंगद, हनुमान जी और जामवंत के नेतृत्व में दक्षिण को गया वानर दल अथाह सागर के तट तक पहुँच गया जहाँ हनुमान जी के ह्रदय में विशाल समुद्र को देखकर कुछ शंका उत्पन्न हुई | सभी वानर भी थक – हार कर चूर थे, और कुछ उपाय न सूझता देख आमरण अनशन करने के लिए वहीँ बैठ गए थे और इसी समय सम्पाती नामक गिद्ध जो वहाँ बैठा हुआ था, ये दृश्य देखकर अत्यंत प्रसन्न हुआ और बोला, “ लगता है भगवान ने तुम सब को मेरा आहार बनाकर भेजा है |” हनुमान जी बोले, “ चलो ये शरीर प्रभु के काम तो न आ सका अब अगर ये गिद्ध के ही काम आ जाये तो भी श्री राम प्रभु पर गिद्ध जाति का जो ऋण है वो कुछ तो उतरेगा |” वे वानरों के पूछने पर आगे बोले, “ जटायु ने रावण से युद्ध किया था और उसी से प्रभु को ज्ञात हुआ था कि माता को रावण लेकर दक्षिण दिशा में गया हुआ है और इसके बाद उसने प्राण त्याग दिए, प्रभु ने उसका अंतिम संस्कार किया |” जटायु की बात सुनकर सम्पाती शोक में व्याकुल हो गया और अपनी दूर दृष्टि से देखकर वानरों को बताया कि रावण 100 योजन समुद्र के पार लंका नमक जगह में सीता जी को ले गया है | सम्पाती और जटायु दोनों भाई थे |

अगर प्रभु श्री राम गिद्ध समझकर उस समय जटायु से मित्रता न करते तो शायद सीता माता की खोज संभव नहीं हो पाती | अब 100 योजन या चार सौ कोस समुद्र को लांघना बड़ी बात थी, जामवंत में कभी अपार बल था पर वो अब वृद्ध हो चले थे, अंगद के मन में शंका थी कि वे एक ओर पार तो जा सकते हैं पर वापसी कर पाएंगे ऐसा मुश्किल है, अब सबकी निगाहें हनुमान जी पर केन्द्रित हो गयी थीं जो एक ओर किनारे पर खड़े कुछ सोच रहे थे |

हनुमान जी में अनंत बल था, हर प्रकार की सिद्धि जानते थे और बल और बुद्धि में कोई उनके आगे नहीं ठहरता था पर उन्हें इस प्रकार से चिंतित देखकर सब आश्चर्य में पड़ गए और तब जामवंत जी ने उन्हें उनके बाल्यकाल की कथा सुनाई कि किस प्रकार ऋषि के दिए श्राप के कारण वे अपना बल भूले हुए हैं और फिर सब ने मिलकर उन्हें उनका बल और शक्तियां याद दिलायीं और बतलाया कि ऋषि ने बताया था कि आवश्यकता पड़ने पर वे शक्तियाँ उन्हें पुनः प्राप्त हो जाएँगी और आज प्रभु श्री राम का काज होना है | हनुमान जी ने स्मरण किया, प्रभु को मन ही मन प्रणाम किया और जय श्री राम बोलकर पर्वत के समान विशाल रूप धारण किया और पास ही स्थित एक पर्वत पर चढ़कर एक जोरदार छलांग लगा दी, छलांग इतने बल और वेग से लगायी गयी थी कि पर्वत समूचा का समूचा ही भूमि में समा गया |

जिस प्रकार श्री रघुबीर जी का वाण अमोघ है जो कार्य सिद्धि के पश्चात ही लौटता है उसी प्रकार हनुमान जी चले, मन में श्री राम का नाम जपते जा रहे थे क्योंकि ये सब प्रभु की शक्ति का ही प्रताप है, हनुमान जी को इस प्रकार अथाह परिश्रम करते देखकर समुद्र देव की आज्ञा से मैनाक पर्वत प्रकट हुआ और उनसे विश्राम करने का आग्रह किया | समुद्र श्री राम के पूर्वज राजा सगर का ऋणी था | थके हारे होने पर हम विश्राम करते भी हैं पर हनुमान जी को श्री राम का कारज सफल करने से पहले कहाँ विश्राम ?

राम काज कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम ||

तो हनुमान जी ने उसे छू लिया जिससे पर्वत का मान भी रह गया और वे आगे बढ़ चले | इस से हमें ये भी सीख मिलती है कि लक्ष्य प्राप्ति तक हमें सतत निरंतर लगे रहना चाहिए और अगर कोई प्रलोभन भी मिले तो विनम्रता से न कहना चाहिए क्योंकि जरुरी नहीं कि कोई हमें भटकाने के लिए ही प्रलोभन दे रहा हो, हो सकता है कि उसका मंतव्य अच्छा हो इसलिए विनम्रता का प्रयोग करना चाहिए | जब हम कुछ अच्छा करने चलते हैं तो मार्ग में बहुत सी रुकावटें आती हैं, बहुत लोग हमारी परीक्षा लेते हैं वे देखना चाहते हैं कि वास्तव में इसमें इस लायक बुद्धि और बल है भी कि नहीं वे अपनी शंका मिटाना चाहते हैं और ऐसा ही हनुमान जी के साथ भी हुआ | देवताओं ने परीक्षा के लिए सुरसा को भेजा, पहले तो हनुमान जी बहुत अनुनय – विनय करते रहे कि एक बार श्री राम का काज हो जाये तो वे स्वयं आकर उसका भोजन बन जाएँगे पर वो कहाँ मानने वाली थी |

जब किसी प्रकार वो न मानी तो हनुमान जी ने कहा ठीक है अपना मुंह खोलो | हनुमान जी छोटे तो थे नहीं इसलिए सुरसा को बदन बढ़ाना पड़ा और जैसे जैसे वो अपना बदन बढाती हनुमान जी और भी बड़े हो जाते इस प्रकार वो बहुत बड़ी हो गयी और तब हनुमान जी एकदम से छोटे हो गए और मुंह में प्रवेश कर गए और बाहर भी निकल आये | सुरसा का मुंह खुला का खुला रह गया और अब वो अपने असली रूप में आ गयी, अपना परिचय दिया और हनुमान जी को आशीर्वाद दिया,

राम काज सब करिहऊ तुम बल बुद्धि निधान |

आशिष देई गयी सो हरष चलेऊ हनुमान ||

अर्थात हमें बल के साथ युक्ति का भी साथ लेना चाहिए और सदा अपने वचनों का पालन करना चाहिए और प्रभु का नाम जपने से बड़ी से बड़ी विपत्ति भी छोटी प्रतीत होने लगती है | आगे उनका सामना सिंहिका से हुआ जो परछाई पकड़कर प्राणियों का भक्षण करती थी जिसका छल बजरंगबली ने तुरंत ही समझ लिया और उसे ठिकाने लगा दिया | सिंहिका एक तरह से माया रूप है जो मानव को पकड़कर रखती है और हनुमान जी ने इससे निकलने में क्षण भर की भी देरी नहीं की और प्रभु का नाम लेकर लंका में प्रवेश किया जहाँ उनका सामना लंकिनी से हुआ |

हनुमान जी बड़े बुद्धिमान हैं पर्वत पर चढ़कर पहले उन्होंने लंका का मुआयना किया और फिर समझ – बुझकर लघु रूप में रात्रि समय नगर में प्रवेश किया पर इस रूप में भी उन्हें लंकिनी ने देख लिया जिसको उन्होंने मुष्टिका प्रहार से धूल – धूसरित कर दिया | तो जहाँ बुद्धि का प्रयोग आवश्यक था वहाँ उसका किया और जहाँ बल का वहाँ उसका किया |

लंकिनी ने हनुमान जी के दर्शन को बड़ा पूण्य माना और बोली :-

तात मोर अति पुन्य बहूता देखेऊँ नयन राम कर दूता |

साथ ही बड़ी सुंदर बात बोली :-

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग |

तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ||

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा |

हृदयँ राखि कोसलपुर राजा ||

हे तात आज मेरे बड़े पूण्य फलीभूत हुए हैं जो इन नयनों से श्री राम दूत के दर्शन हुए हैं और यदि स्वर्ग और मोक्ष के सारे सुखों को एक पड़ले में रख दिया जाय तो भी वे सब मिलकर दूसरे पड़ले में रखे उस सुख के बराबर नहीं हो सकते जो क्षण मात्र के सतसंग से मिलता है |

अब आप कोसलपुर अर्थात अयोध्यापुरी के राजा श्री राम जी को ह्रदय में रख नगर में प्रवेश कर सारे कार्य कीजिए | एक और बहुत महत्वपूर्ण और ज्ञान युक्त बात आगे वर्णित है :-

गरल सुधा रिपु करहिं मिताई | गोपद सिंधु अनल सितलाई |

गरुण सुमेरु रेनु सम ताही | राम कृपा करि चितवा जाही ||

अर्थात उसके लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रवत हो जाते हैं, समुद्र गाय के खुर जितना हो जाता है, अग्नि शीतल हो जाती है और हे गरुड़ जी सुमेरु पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है जिसे श्री रामचंद्र जी ने एक बार कृपा कर देख लिया |

हनुमान जी जब रात्रि समय माँ सीता की खोज कर रहे थे तो एक घर से दूसरे घर, एक महल से दूसरे महल हर ओर चक्कर काट रहे थे और चक्कर काटते हुए रावण के महल में दाखिल हुए वहाँ उन्हें बहुत सी स्त्रियाँ दिखीं जो निश्चिंत अवस्था में सो रही थीं पर उन्हें माँ सीता नहीं दिखीं | इतनी सारी स्त्रियों में भी बिन देखे वे समझ गए कि इनमे से कोई भी वैदेही जी नहीं हो सकतीं क्योंकि भला वे तो श्री राम की विरह वेदना में व्याकुल हो क्या इस प्रकार चैन से सो सकती हैं | हनुमान जी वायु मार्ग से खोज कर रहे थे तभी उन्हें एक भिन्न प्रकार से निर्मित घर दिखाई पड़ा | पास जाकर देखा तो वहाँ तुलसी का पेड़ था और भवन की ईंटों में सुन्दर राम नाम और श्री राम के धनुष बाण के चिन्ह अंकित थे |

लगातार खोज खबर करने के बाद भी हनुमान जी ने इतनें छोटे चिन्हों पर ध्यान दिया जिससे ये सीख मिलती है कि जीवन में छोटी – छोटी बातों और वस्तुओं का भी बड़ा महत्व है और हमें छोटी चीजों को भी अन्देखा नहीं करना चाहिए | लंका जो घोर राक्षसी नगरी थी वहाँ ऐसे शुभ चिन्ह देखकर हनुमान जी ठिठक पड़े और मन में विचार करने लगे

लंका निसिचर निकर निवासा | इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ||

सवेरा होने वाला था, और श्री राम नाम की ध्वनि के साथ विभीषण जी ने बिस्तर त्यागा, राम नाम सुनकर हनुमान जी को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने विचार किया की ये किसी सज्जन का ही निवास है और फिर विप्र रूप धरकर वचन बोले जिसे सुनकर विभीषण जी बाहर निकले |

जब मनुष्य विपत्ति में होता है, संकट में होता है, पराधीनता में होता है, या बुरे लोगों के बीच होता है, मानसिक रूप से थका – हारा हुआ और व्यथित होता है तो उसे बस प्रभु का ही सहारा होता है और उम्मीद होती है कि एक न एक दिन प्रभु उस पर अवश्य कृपा करेंगे और उसके दुःख हरेंगे, उसे इस विषम परिस्थित से निकालेंगे और इसी आशा – विश्वास में वह दुःख सहकर भी दिन काटता है और कभी कभी तो ऐसा करते वर्षों व्यतीत हो जाते हैं और व्यक्ति कष्टों को ही नियति समझने लगता है और फिर जब उसके द्वारे पर कोई पवित्र विप्र दर्शन देते हैं तो वो उनसे अपनी पीड़ा की गठरी खोल देता है और विभीषण जी ने भी ऐसा ही किया | वर्षों बाद उन्हें लंका में किसी ब्राह्मण के दर्शन हुए थे और उनके कौतूहल का कोई ठिकाना ही नहीं था |

करि प्रनाम पूँछी कुसलाई, बिप्र कहहु निज कथा बुझाई ||

की तुम्ह हरि दासन्ह मंह कोई, मोरें ह्रदय प्रीति अति होई ||

की तुम्ह रामु दीन अनुरागी, आयहु मोहि करन बड़भागी ||

आते ही प्रणाम कर कुशल – क्षेम पूछी और कहा कि हे ब्राह्मण देव अपनी कथा समझा कर कहिए और कहा :-

क्या आप हरि भक्तों में से एक हैं, क्योंकि आप को देखकर मेरे ह्रदय में अत्यंत प्रेम उमड़ रहा है अथवा क्या आप दीनों से प्रेम करने वाले स्वयं श्री राम जी ही हैं जो मुझे बड़भागी बनाने ( घर बैठे बैठे दर्शन देकर कृतार्थ करने ) आये हैं ?

जब भक्त के मन की ऐसी दशा हो जाती है तो उसे बस प्रभु का ही सहारा रहता है और वो सब कुछ उनपर ही छोड़ देता है और जब किसी साधु – संत से मिलता है तो उन्हें प्रभु द्वारा भेजा हुआ समझकर अपने सारे कष्ट अपनी सारी विपदा उनके सन्मुख प्रस्तुत कर देता है और अपनी मुक्ति और उद्धार का मार्ग जानना चाहता है यहाँ पर विभीषण जी की भी ऐसी ही दशा है जिसका वे इस प्रकार वर्णन करते हैं :

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी | जिमि दसनिन्ह महुँ जीभ बिचारी ||

तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा | करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा ||

अर्थात मैं यहाँ ऐसे ही रहता हूँ जैसे दातों के मध्य बिचारी जीभ रहती है, हे पवनसुत क्या कभी मुझे अनाथ जानकर सूर्यकुल के नाथ श्री रामचंद्र जी मुझ पर कृपा करेंगे ?

तामस तन कछु साधन नाहीं, प्रीत न पद सरोज मन माहीं |

अब मोहि भा भरोस हनुमंता, बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ||

मेरा तामसी तन होने से साधन तो कुछ बनता नहीं है और मन में श्री रघुबीर के चरण कमलों से प्रीत भी नहीं है पर हे हनुमंत ! अब मुझे ये भरोसा हो गया है कि श्री रघुबीर की मुझ पर कृपा है क्योंकि हरि की कृपा के बिना संत नहीं मिलते |

विभीषण( भक्त ) यहाँ एक दम अकेले निवास करते हैं, और हर तरह से अकेले भी हैं, चारों ओर राक्षसों की फौज है, कहने को वे शारीरिक दृष्टिकोण से वहाँ हैं पर उनका मन तो श्री रघुबीर के चरण कमलों में समर्पित है, उनकी आत्मा यहाँ से निकल प्रभु से मिलने को व्याकुल है पर जाएँ कहाँ और कैसे मिलें ? बस मन में एक विश्वास और आधार है कि प्रभु एक दिन अवश्य कृपा करेंगे जरुर किसी को भेजेंगे या स्वयं ही प्रकट होकर उबारेंगे और जब एक दिन चिंता के सागर में डूबे हुए मन को हनुमान जी के मधुर वचन सुनाई दिए तो डूबते हुए मन को जैसे किनारा मिल गया हो, व्याकुल हो सारी पीड़ा उड़ेल दी | दो सज्जन , दो संत और दो भक्त एक दूसरे को देखते सुनते ही पहचान जाते हैं और ऐसा ही विभीषण जी और हनुमान जी के साथ भी हुआ, हनुमान जी से मिलते ही वे भाव विभोर हो गए और प्रेम सागर में डूब गए | ये वास्तव में बड़ा स्वाभाविक है और इसके लिए किसी ज्ञान – विज्ञान और यहाँ तक कि वार्तालाप की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है और भक्ति का ऐसा ही प्रभाव है और ऐसा ही स्वभाव है | प्रभु वास्तव में अपने भक्तों को उबारते हैं, कष्टों को दूर करते हैं हाँ बस थोड़ा समय लगता है |

हममें से कितनों की ऐसी ही दशा होगी, कहीं बंधे – बंधे से होंगे, आत्मा कह रही होगी कि यहाँ से निकलो, कहीं और ले जा रही होगी पर किसी कारण वश जा नहीं पा रहे होंगे चाहें मन कितना ही बेचैन क्यों न हो और हाँ उस समय काल में अनगिनत बाधाओं और परेशानियों से भी पाला पड़ेगा जो आपको बिल्कुल झकझोर कर रख देंगी, तोड़ देंगी, आत्मविश्वास बिल्कुल डोल जायेगा | आप बस जी रहे होंगे या शायद उसका भी मन न करता हो, एक पूर्ण हताशा और निराशा घेर लेती है, मन ही मन रो रहे होंगे; शारीरिक रूप से कहीं और मानसिक रूप से कहीं होंगे और हो सकता है भगवान् पर से भी विश्वास डगमगाने लगे और शायद विभीषण जी की तरह लगता होगा कब वो दिन आयेगा ? कब भगवान दया करेंगे और कब उद्धार करेंगे ? या नहीं करेंगे और सारा जीवन ऐसे ही व्यर्थ चला जायेगा |

तो वो दिन अवश्य आयेगा और जरूर आयेगा, अगर आप मन के सच्चे हैं, अपनी आत्मा की आवाज सुनते हैं और भगवान पर भरोसा रखते हैं तो बस थोड़ा और धैर्य रखिये, टूटिए मत और हौसला रखिये; दिन आयेगा, दिन जरूर आयेगा और जल्दी आयेगा | हरि कृपा जरूर होगी और अवश्य होगी ||

जय श्री राम ||

हनुमान जी आगे कहते हैं,

सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीति, करहिं सदा सेवक पर प्रीति ||

कहहु कौन मैं परम कुलीना, कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ||

प्रात लेइ जो नाम हमारा, तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ||

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर |

कीन्हीं कृपा सुमिरि गन भरे बिलोचन नीर ||

जानतहूँ अस स्वामि बिसारी, फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी ||

एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा, पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा ||

हनुमान जी ज्ञानवान, बलवान और बुद्धिमान होते हुए भी अपने को अधम बता रहे हैं, और प्रभु के गुणों का बखान करते और सोचते हुए भाव मग्न हो जाते हैं और असीम शांति का अनुभव करते हैं और फिर कहते हैं कि जो ऐसे उदार स्वामी को भुलाकर विषय – वासनाओं के आगे भागते हैं वे फिर दुखी क्यों न हों |

यहाँ पर भक्ति की पराकाष्ठा के दर्शन होते हैं, सेवक को स्वामी के चरणों में ही विश्राम मिलता है, उसके लिए वे ही सब कुछ होते हैं और ऐसे भक्त को भगवान् का आशीर्वाद सदा सर्वदा प्राप्त होता रहता है वे सदा उसकी रक्षा करते हैं हमें तो बस अपना सर्वस्व उनपर न्योछावर कर देना चाहिए और चरण – कमलों में समर्पित हो जाना चाहिए |

जब हनुमान जी अपने आप को अधम कह सकते हैं तो फिर हम जैसे लोगों की तो कुछ गिनती ही नहीं है | वास्तव में हनुमान जी विनम्रता की सीमा हैं और हर कार्य को श्री राम का काज समझ कर करते हैं और उसकी पूर्णता या सफलता को प्रभु का आशीर्वाद मानते हैं | अब बात आती है हम साधारण लोगों की जो अपने आप को बड़ा भक्त, विद्वान और ज्ञानवान समझते हैं और कुछ लोगों को तो ऐसा भी भ्रम हो जाता है कि जैसे भगवान् तो उनकी पोटली में बंद हैं बल्कि हमें सदा हनुमान जी की भांति प्रभु के गुणों का स्मरण करना चाहिए, सदा विनम्र रहना चाहिए और उनकी कृपा के लिए कृतार्थ रहना चाहिए |

इस प्रकार वे विभीषण जी से विदा लेकर अशोक वाटिका के लिए प्रस्थान करते हैं जहाँ सीता जी को अशोक के पेड़ के नीचे दीन दशा में बैठे देखकर द्रवित हो जाते हैं और वृक्ष के ऊपर चढ़कर विचार करने लगते हैं कि क्या किया जाय |

थोड़े समय के पश्चात वहाँ रावण आता है और माता सीता को कठोर वचन बोलकर चला जाता है और एक मास की अवधि देता है | सीता जी व्याकुल होकर अग्नि चाहती है जिससे देह त्याग कर सकें और ये भावुक क्षण हनुमान जी का कल्प समान बीतता है | इसके पश्चात श्री राम द्वारा दी गयी मुद्रिका हनुमान जी नीचे गिरा देते हैं जिसे देखकर सीता जी पहले हर्षित होती हैं फिर बाद में शंकित हो जाती हैं कि रघुबीर की मुद्रिका यहाँ कैसे पहुँची, किसी के लिए भी उन्हें जीतना असंभव है और ये माया से बनी भी नहीं जान पड़ती इस प्रकार सीता जी दुविधा में पड़कर मन में नाना प्रकार के विचार करने लग जाती हैं | उन्हें इस प्रकार विचार करता देखकर हनुमान जी राम नाम के मधुर स्वर का उच्चारण करते हैं और फिर माता के कहने पर समीप चले जाते हैं |

उन्हें देखकर सीता जी विस्मय में पड़ जाती हैं तब हनुमान जी अपना परिचय देते हैं,

राम दूत मैं मातु जानकी, सत्य सपथ करुणानिधान की |

यह मुद्रिका मातु मैं आनी दीन्हीं राम तुम कह सहिदानी ||

हनुमान जी के ऐसे वचन सुनकर सीता जी ने जान लिया कि ये मन – वचन और कर्म से कृपासिंधु श्री राम जी के ही दास हैं | तब सीता जी ने उनसे तरह – तरह के प्रश्न पूछे, लक्ष्मणजी समेत प्रभु की कुशल पूछी और पूछा क्या प्रभु ने उन्हें भुला दिया ? तब हनुमान जी ने श्री राम के सारे समाचार उन्हें सुनाए और बताया कि वे बड़े दुखी हैं, कहते हैं कहने से दुःख कम हो जाता है पर वे तो अपना दुःख किसी से कह तक नहीं पाते पर आपके दुःख का उन्हें भान है और उनके मन में आपसे असीम प्रीत है और वो मन सदा आपके पास ही रहता है और यही उनके प्रेम का सार है और ये सुनते ही जानकी जी प्रेम में मग्न हो गयीं और तब हनुमान जी ने कहा :

माता कुछ दिवस और धैर्य धारण करो, मैं आपको अभी यहाँ से ले जा सकता हूँ पर मुझे श्री राम की आज्ञा नहीं है, श्री रामचंद्र जी वानरों सहित यहाँ आएँगे और राक्षसों को मारकर आपको ले जाएँगे और उनका ये विमल यश नारद आदि ऋषि – मुनि तीनों लोकों में गायेंगे | तब सीता जी बोलीं ;

हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना, जातुधान अति भट बलवाना ||

मोरें ह्रदय परम संदेहा, सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा ||

कनक भूधराकार सरीरा, समर भयंकर अति बल बीरा ||

सीता मन भरोस तब भयऊ, पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ ||

जानकी जी को ये संदेह था कि कैसे छोटे वानर राक्षसों का सामना करेंगे और उस संदेह को दूर करने के लिए उन्होंने सोने के (सुमेरु) पर्वत के आकार का अत्यंत विशाल शरीर प्रकट किया जो युद्ध में शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करने वाला, अत्यंत बलवान और वीर था और उसे देखकर सीताजी के मन में विश्वास हुआ तत्पश्चात हनुमान जी ने पुनः लघु रूप ले लिया |

इसे पश्चात बड़ा ही सुन्दर संवाद है :-

सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल |

प्रभु प्रताप ते गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ||

मन संतोष सुनत कपि बानी | भगति प्रताप तेज बल सानी ||

आसिष दीन्हि राम प्रिय जाना | होहु तात बल सील निधाना ||

अजर अमर गुननिधि सुत होहू | करहुँ बहुत रघुनायक छोहू ||

करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना | निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ||

बार बार नाएसि पद सीसा | बोला बचन जोरि कर कीसा ||

अब कृतकृत्य भयऊँ मैं माता | आसिष तब अमोघ बिख्याता ||

यहाँ पर हनुमान जी श्री राम की शक्ति के प्रताप का वर्णन करते हुए कहते हैं कि माता वानरों में बहुत बल या बुद्धि नहीं होती है पर ये तो प्रभु का प्रताप है जिससे एक छोटा सर्प भी गरुण को खा जाता है | हनुमान जी की इस प्रकार भक्ति – प्रताप – तेज और बल से सनी वाणी को सुनकर सीता जी को मन में संतोष हुआ और उन्हें श्री राम का प्रिय जानकर आशीर्वाद दिया कि हे सुत तुम बल और सील के निधान हो, अजर – अमर हो जाओ, सब प्रकार के गुणों से युक्त हो जाओ और श्री रघुनाथ जी तुम पर बहुत कृपा करें | प्रभु कृपा करें ये सुनते ही हनुमान जी निर्भर होकर प्रभु के निर्मल प्रेम में मग्न हो गए और बार – बार माता के चरणों में शीश नवाने लगे और फिर हाथ जोड़कर बोले कि हे माता अब आपके ऐसे वचनों को सुनकर और आपका अमोघ आशीर्वाद पाकर में कृतकृत्य हुआ और ये सर्वविदित है कि आपका आशीर्वाद अवश्य फलीभूत होता है |

सीता माता ने हनुमान जी को अनेक आशीर्वाद दिए पर जैसे ही उन्होंने सुना कि प्रभु कृपा करें तो उनके ऐसे वचन सुनकर वे प्रेम में मग्न हो गए | उनके लिए सिद्धियाँ और अनेकानेक आशीर्वादों से बढ़कर प्रभु की कृपा थी और ये ही उनके लिए सबसे बड़ा आशीर्वाद था | कई बार जब हम लोग मंदिरों में जाते हैं तो अनेक प्रकार के दुखों से पीड़ित होने के कारण भगवान से उनके निवारण का आशीर्वाद माँगते हैं पर ज्यादा अच्छा हो अगर हम उनकी कृपा और भक्ति मांगें क्योंकि ये मिलते ही सारे कार्य अपने आप सिद्ध हो जायेंगे, सब दुःख और संकट दूर हो जायेंगे और जीवन सफल हो जायेगा |

जब हम सद्कार्य करते हैं तो हमें स्वयं की शक्ति पर तो विश्वास रखना ही चाहिए साथ ही साथ प्रभु की शक्ति पर भी विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि बहुत से कार्य हमारे बस के नहीं होते और हम हारा हुआ अनुभव करने लगते हैं और ऐसे समय प्रभु की कृपा से दुर्गम काज भी सहज हो जाते हैं, बड़ी – बड़ी परेशानियाँ और बाधाएँ मार्ग से हट जाती हैं और कार्य की सफलता सुनिश्चित होती है तभी तो हनुमान जी ने जानकी जी से कहा कि, वानरों में बहुत बल या बुद्धि नहीं होती ये तो प्रभु का प्रताप है जिससे कोई भी असंभव सा लगने वाला कार्य भी संभव हो जाता है और जब बजरंगबली ऐसा कह रहे हैं जो सर्व समर्थ हैं तो फिर हम साधारण मनुष्यों की बिसात ही क्या ?

हमारे लिए तो उनका अनुग्रह ही सब कुछ है;

दुर्गम काज जगत के जेते, सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ||

जय सिया – राम; जय हनुमान ||

मनुष्य जितना बड़ा होता है वह उतना ही विनम्र भी हो जाता है और यही उसका सबसे बड़ा गुण है हनुमान जी ब्रह्मास्त्र से सुरक्षित थे उन्हें इस प्रकार का वरदान था तिस पर भी जब मेघनाद ने इसका संधान किया तब हनुमान जी ने सोचा यदि मैं इसकी अवग्या करता हूँ तो इसकी महिमा मिट सकती है और वे इसके प्रहार से मुर्छित हो गए और तब मेघनाद उन्हें नागपाश में बाँधकर ले गया | यहाँ पर एक और बात जो ध्यान देने योग्य है वो है अहंकार का पूर्ण त्याग | आज मनुष्य पढ़ लिख जाता है कुछ एक गुण उसमे आते हैं और थोड़ा सा ज्ञान अर्जित कर लेता है तो दूसरे की अवज्ञा करने लगता है, दूसरे के गुणों या ज्ञान को वह तुच्छ समझता है, हनुमान जी यहाँ पर हमें सन्देश दे रहे हैं की सामने वाला भले ही शत्रु क्यों न हो उसकी भी प्राप्त विद्या और ज्ञान का आदर करना चाहिए, उसके भी गुणों का सम्मान करना चाहिए भले ही आप उस ज्ञान विज्ञान से स्वयं भली भांति परिचित क्यों न हों और इसलिए अवगुणों पर ध्यान न देकर सिर्फ व्यक्ति की अच्छाई और उसके गुणों पर ही ध्यान देना चाहिए |

यहाँ पर शिव जी माता पार्वती से कहते हैं;

जासु नाम जपि सुनहु भवानी, भव बंधन काटहिं नर ग्यानी |

तासु दूत कि बंध तरु आवा, प्रभु कारज लगि कपिहिं बंधावा ||

हे भवानी ! सुनो, जिनका नाम जपकर ज्ञानी मनुष्य संसार (जन्म – मरण) के बंधन को काट डालते हैं, उनका दूत कहीं बंधन में आ सकता है ? किन्तु प्रभु कार्य के लिए उन्होंने स्वयं ही बंधा जाना स्वीकार किया | प्रभु पर अटूट विश्वास के कारण हनुमानजी का स्वयं पर विश्वास इतना प्रगाढ़ था कि जब रावण की सभा में उन्होंने देवताओं और दिक्पालों को सभीत और हाथ जोड़े खड़ा देखा, उस सभा की प्रभुता देखी तो इसके बाद भी वे तनिक भी नहीं घबराए ऐसे ही जैसे सर्पों के बीच गरुण निश्चिन्त रहते हैं |

देखि प्रताप न कपि मन संका, जिमि अहिगन महुं गरुण असंका ||

हनुमानजी ने रावण को बहुत प्रकार से समझाने का प्रयास किया, श्री राम के गुणों का वर्णन किया और यहाँ तक कहा कि यदि वो प्रभु की शरण में चला जाय तो प्रभु उसे क्षमा कर देंगे पर अहंकारी कहाँ मानने वाला था, तब हनुमानजी ने कहा कि तुझे मतिभ्रम हो गया है और यह सुनकर रावण खिसिया गया और राक्षसों को प्राण लेने की आज्ञा दी और तब विभीषण जी ने आकर समझाया कि दूत को मारना नीति विरुद्ध है और ये सुनकर रावण बोला कि इनकी पूँछ में आग लगा दी जाय | हनुमान जी ने पूँछ इतनी बड़ी कर ली कि नगर में न घी बचा और न ही तेल, और जब पूँछ में आग लगायी गयी तब वे अत्यंत छोटे हो गए जिससे बंधन से मुक्त हो गए और फिर कूदकर एक घर से दूसरे घर चढ़ने लगे, अपना शरीर अत्यंत विशाल कर लिया और सारे नगर को जला डाला सिवाय विभीषण का घर | इस पर भी हनुमान जी को अग्नि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है इस पर

शिवजी माँ पार्वती से कहते हैं,

ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा, जला न सो तेहि कारन गिरिजा |

अर्थात जिन्होंने अग्नि को बनाया हनुमान जी उन्हीं के दूत हैं और इसी कारण अग्नि से नहीं जले | इसका अर्थ यह भी है जब आप अपना जीवन परोपकार के लिए समर्पित कर देते हैं तब एक प्रकार से आप प्रभु का ही कार्य कर रहे होते हैं और आपको उनकी कृपा प्राप्त होती रहती है, मार्ग में आने वाली परशानियाँ और बाधाएँ छट जाती हैं बस संकल्प होना चाहिए और प्रभु पर अटूट आस्था और विश्वास |

यहाँ पर हनुमान जी जो भी कुछ कर रहे हैं वे उत्तेजना वश नहीं कर रहे हैं, इस विकट परिस्थिति में भी वे जरा भी विचलित नहीं हैं, उनका मन शांत है, सब सोच – समझ रहे हैं और पूरी तरह से संतुलित हैं | जो कर रहे हैं उसका भान है और इसलिए विभीषण का घर देखते ही वे उसमे आग नहीं लगाते हैं | उनके लंका में आग लगाने के अन्य कारण हो सकते हैं, लंका एक दुर्ग था जिसमे राक्षसों की सेना, रावण के मंत्री और अन्य मुख्य लोग रहते थे, प्रजा साधारण तया महलों से दूर ही रहती है और रावण को अपनी शक्ति पर बड़ा अभिमान था और सारे राक्षसों को उस पर | इसीलिए हनुमान जी के बहुत तरह से समझाने पर भी वो टस से मस नहीं हुआ और सारे असुर उसकी हाँ में हाँ मिलाते रहे तब हनुमान जी के इस कार्य से उनके मन में अवश्य शंका और डर व्याप्त हो गया होगा कि जिसके दूत में इतनी शक्ति है स्वयं उनमें कितनी होगी और क्या उनसे शत्रुता लेनी चाहिए ? फिर भी बस अहंकार वश वो नहीं माना | हनुमान जी के इस कार्य से लंका में असुरों में अवश्य भय व्याप्त हो गया और उनके मन में जबर्दस्त शंका व्याप्त हो गयी और वे कुछ – कुछ रावण के विरुद्ध भी हो गए | वे कहते भी हैं,

साधु अवग्या कर फलु ऐसा, जरइ नगर अनाथ कर जैसा |

मतलब रावण ने हनुमान जी की अवज्ञा की उनका कहना नहीं माना और इसीलिए सारा नगर अनाथ की भांति जल गया और इससे उनके मन में क्रोध और विरोध की भावना बलवती हुई | साथ ही साथ हनुमान जी के नगर जलने से रावण की सेना की भी बहुत हानि हुई क्योंकि बहुत से आयुध और अस्त्र – शस्त्र भी जल के भस्म हो गए जिससे आगे युद्ध के समय प्रभु का कार्य थोड़ा आसान हो गया और रावण की सेना का आत्मविश्वास डोल गया |

और प्रभु श्री राम के आने से पहले लंका नगरी जल कर पवित्र हो गयी सो अलग | हनुमान जी के किए गए हर कार्य का कोई न कोई अर्थ और उद्देश्य अवश्य होता है पर हम मानव अपनी अल्प बुद्धि से क्या और कहाँ तक वर्णन करें क्योंकि हमारे तर्क – वितर्क, ज्ञान, समझने – समझाने और ग्रहण करने की सीमा है और प्रभु की तो कोई सीमा ही नहीं तो वे इस त्रुटि पूर्ण वर्णन और विवरण के लिए हमें क्षमा करें ऐसी प्रार्थना है |

समुद्र में पूँछ बुझाकर कुछ आराम करने के पश्चात हनुमानजी पुनः जानकी जी के सामने उपस्थित हुए और बोले,

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा, जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ||

चूडामनि उतारि तब दयऊ, हरष समेत पवनसुत लयऊ ||

कहेहु तात अस मोर प्रनामा, सब प्रकार प्रभु पूरनकामा |

दीन दयाल बिरिदु संभारी, हरहु नाथ मम संकट भारी ||

हे माता मुझे कुछ पहचान या निशानी दीजिये जैसे रघुनायक जी ने मुझे दी थी, तब सीता माता ने चूड़ामणि उतार कर दी जिसे पवनसुत ने हर्षपूर्वक ले लिया और बोलीं, हे तात ! मेरा प्रणाम निवेदन करना और इस प्रकार कहना – हे प्रभु ! वैसे तो आप सब प्रकार से पूर्णकाम (आपको किसी प्रकार की कामना नहीं है) हैं, तथापि दीनों पर दया करना आपका विरद है और उस विरद को याद कर मेरे भारी संकट को दूर कीजिये |

यहाँ पर हनुमान जी की बुद्धिमानी प्रकट होती है और कोई होता तो इतना काम कर संतुष्ट हो जाता और जाने की आज्ञा मानता पर हनुमान जी पहले निशानी मांग रहे हैं जिसे वे प्रभु को दिखा सकें और जिससे उनको पूर्ण विश्वास हो जाये कि वो सीता जी से मिले थे और माता सीता ने कहा भी कि हे हनुमान तुम बहुत बुद्धिमान और चतुर हो और फिर चूड़ामणि उनको दे दी |

हम सब को प्रभु का ही आसरा और सहारा होता है और दुःख होने पर हम उनकी ही शरण में जाते हैं और जाना भी चाहिए, वे दीन दयाल हैं, भक्तों पर शीघ्र दया करते हैं और उनके भारी से भी भारी संकट को हर लेते हैं अतः संकट की घड़ी में उपयुक्त पंक्तियाँ अवश्य दोहरानी चाहियें |

वापस किष्किन्धा पहुँचने पर प्रभु से भेंट हुई और जब प्रभु ने कुशल – क्षेम पूँछी तो सब बोले अब आपके चरण कमलों के दर्शन से कुशल है | जामवंत जी बोले हे रघुबीर जिस पर आप दया करते हैं वो सदा कुशल से ही रहता है और सुर – नर – मुनि सब उस पर प्रसन्न रहते हैं और वो ही विजयी है, वो ही विनयी है, और वो ही गुणों का सागर है और उसका ही निर्मल यश चारों लोकों को प्रकाशित करता है | प्रभु की कृपा से ही सब कार्य हुए हैं और हमारा जीवन आज सफल हो गया |

प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू | जनम हमार सफल भा आजू ||

वे आगे बोले हनुमाज जी ने जो कार्य किये हैं उनका वर्णन हजारों मुखों से भी नहीं किया जा सकता और हनुमान जी का ऐसा चरित्र और उनके ऐसे कार्य श्री रघुबीर जी के मन को अत्यंत ही प्रिय लगे और उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक हनुमान जी को ह्रदय से लगा लिया और पूछा ?

कहहु तात केहि भांति जानकी, रहति करति रच्छा स्वप्रान की |

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट |

लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ||

हे तात कहो सीता जी किस प्रकार रहती हैं और अपने प्राणों की रक्षा किस प्रकार करती हैं तब हनुमान जी बोले आपके नाम का पहरा रात – दिन रहता है क्योंकि वे रात – दिन आपके नाम का ही जप करती रहती हैं, सदैव आपका ही ध्यान धरती हैं और आपका ध्यान ही किंवाड़ है, नेत्रों को अपने चरणों में लगाए रहती हैं और आपके चरण कमलों को ही याद करती रहती हैं तो आखिर प्राण जाएँ तो किस मार्ग से ?

इसके पश्चात् प्रभु को चूड़ामणि देकर सीताजी का सब हाल कह सुनाया, उनकी विकल मनोदशा देखकर सुख के धाम भगवान श्री राम जी के नेत्रों में जल भर आया और बोले जिसे मन क्रम और वचन से मेरी ही गति हो उसे क्या सपने में भी विपत्ति आ सकती है ? और तब हनुमान जी बोले,

कह हनुमंत विपति तब सोई, जब तब सुमिरन भजन न होई ||

अर्थात विपत्ति तो वही है ( उसी क्षण ) है जब आपका ध्यान और भजन न हो और जब एक बार प्रभु को सुमिरन किया तब काहे की विपत्ति और कैसी विपत्ति |

तब प्रभु ने कहा कि हे सुत ! मैं तेरा ऋणी हो गया हूँ और सब प्रकार से विचार कर देख लिया है की मैं तुझसे उऋण नहीं हो सकता और इस प्रकार हनुमान जी को प्रेम पूर्वक देखकर प्रभु के नयनों में अश्रु भर आये और तब हनुमान जी भाव विह्वल होकर मेरी रक्षा करो ! मेरी रक्षा करो कहते हुए चरणों में गिर पड़े |

बार – बार प्रभु चहहि उठावा, प्रेम मगन तेहि उठब न भावा |

प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा, सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ||

सावधान मन करि पुनि संकर, लागे कहन कथा अति सुन्दर |

कपि उठाइ प्रभु ह्रदय लगवा, कर गहि परम निकट बैठावा ||

प्रभु बार बार उठाने की चेष्टा कर रहे हैं पर प्रेम में मगन उन्हें चरण कमलों के अलावा कुछ सुहाता ही नहीं | प्रभु के कर कमल हनुमान जी के शीश पर हैं और उनके इस भाग्य या इस दशा का सुमिरन कर शंकर जी प्रेम में मग्न हो जाते हैं, और इसके पश्चात मन को सावधान कर अत्यंत सुन्दर कथा पुनः कहने लगते हैं | हनुमान जी को उठाकर प्रभु ह्रदय से लगा लेते हैं और हाथ पकड़कर अत्यंत निकट बैठा लेते हैं और इसके पश्चात लंका का सारा समाचार और हनुमान जी ने किस प्रकार अगाध समुद्र को पार कर लंका में आग लगायी ये पूछते हैं |

हनुमान जी ज्ञान, भक्ति, साहस और विनम्रता की सीमा हैं, मानव की सीमाएं हैं वो जो भी थोड़ा – बहुत कर पाता है, उनके उपकार से ही कर पाता है वे ही रक्षक हैं और वे ही उपकारी हैं इसीलिए सर्व प्रकार से समर्थ होते हुए भी हनुमान जी रक्षा करो कहकर चरणों में गिर पड़ते हैं और यहाँ पर कहते हैं,

साखा मृग के बड़ि मनुसाई, साखा तें साखा पर जाई |

नाघि सिंधु हाटकपुर जारा, निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा |

सो सब तब प्रताप रघुराई, नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ||

हिरण एक शाखा से दूसरी शाखा कूद फांद कर ले यही उसके लिए बहुत है, ये जो मैंने सिंधु नाघ कर सोने की लंका में आग लगा दी और राक्षसों को मारकर वन को उजाड़ दिया ये सब आपका ही पुण्य प्रताप है और इसमें मेरी कुछ भी प्रभुता नहीं है | अब ऐसी विनम्रता, सौम्यता और शील के दर्शन कहाँ होंगे ? आज हम सब थोडा बहुत कर मैंने किया है, कभी – कभी तो दूसरे के किए को भी अपना बताकर बड़ी बड़ी डींगे मारते हैं, अहंकार से भर जाते हैं और स्वयं को बड़ा श्रेष्ठ समझने लगते हैं | ये जो हम श्वाश ले रहे हैं ये भी प्रभु की कृपा से ही ले रहे हैं तो फिर हम कुछ कैसे कर सकते हैं अतएव जो थोड़ा बहुत भी श्रेष्ठ कर्म करते हैं उसे प्रभु को समर्पित करना चाहिए क्योंकि तब हम अवश्य अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनते हैं और बुरे कर्म अगर जानबूझकर किये जाएँ तो निश्चित ही आत्मा विरुद्ध कार्य हुआ होगा और फिर हम स्वयं जिम्मेदार हैं हाँ जाने अंजाने कभी – कभी कुछ ऐसा हो जाता है जो नहीं होना चाहिए तो उसको ज्यादा सोचना नहीं चाहिए और हो सके या अवसर मिल सके तो प्रायश्चित कर लेना चाहिए |

जिस पर प्रभु की कृपा हो उसके लिए सब संभव हो जाता है, सुर – नर – मुनि – देवता सब उस पर प्रसन्न रहते हैं, दुर्गम से दुर्गम काज भी सहज संभव हो जाते हैं | अब जब हनुमान जी मांग भी रहे हैं तो क्या मांग रहे हैं ?

नाथ भगति अति सुखदायिनी, देहु कृपा करि अनपायनी |

हे प्रभु मुझे अपनी अत्यंत सुख देने वाली निश्चल भक्ति कृपा कर प्रदान कीजिये |

सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी, एवमस्तु तब कहेउ भवानी ||

उमा राम सुभाव जेंहि जाना, ताहि भजनु तजि भाव न आना |

यह संवाद जासु उर आवा, रघुपति चरन भगति सोई पावा ||

सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा, जय जय जय कृपाल सुखकंदा ||

सारे कार्य प्रभु के ही कार्य हैं और जब उनके नाम का गुणगान करते हुए करेंगे तो अवश्य सफल होंगे | पर नाम गुणगान के लिए भी कृपा चाहिए हम लाख कोशिश कर लें जुबान पर श्री राम का नाम आता ही नहीं, मन कहीं और ही लगा रहता है, सुमिरन बड़ा उबाऊ लगता है और पांच – दस मिनट पूजा पाठ को दे देते हैं तो लगता है बड़ा तीर मार लिया है अब कल तक की फुर्सत और बड़ी बात तो ये है कि वो पाँच मिनट भी मन नहीं लगता कुछ और ही चिंता घेरे रहती है तो फिर भक्ति कहाँ होगी ? पूजा कहाँ होगी ? और अगर भक्ति नहीं होगी तो मन यूँ ही इधर – उधर बेकार के कामों में भटकता रहेगा, व्यक्ति ऐसे ही उलझा रहेगा और बेचैन रहेगा, न सही से काम में मन लगेगा न भजन में और हनुमान जी तो पहले की कह चुके हैं,

ता कहुं प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल |

तब प्रभावं बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल ||

अर्थात हे प्रभु जिस पर आप अनुकूल हैं उसके लिए कुछ भी अगम नहीं, आपके प्रभाव से एक रुई जो स्वयं बहुत जल्दी जलने वाली वस्तु है वो भी बड़वानल को निश्चित ही जला सकती है |

बस मन में राम नाम जपते हुए कार्य कीजिये, कार्य की सफलता में रत्ती भर भी संदेह नहीं है, मन शांत और चित्त प्रसन्न होगा सो अलग और शांत चित्त और प्रभु का ध्यान करने वाले व्यक्ति से कार्य सही और सफल ही होते हैं और वो सदा कुशल से रहता है और जैसा जामवंत जी पहले की कह चुके हैं, वही विजयी है, वही विनयी है और वही गुणों का सागर है और उसी का निर्मल यश तीनों लोकों में प्रकाशित होता है और इसीलिए हनुमान जी और कुछ न मांगकर प्रभु की निश्चल भक्ति मांग रहे हैं क्योंकि ये एक बार मिल गयी तो फिर समझो सारा जगत मिल गया, सारा जगत आपके वश में हो गया और भक्ति मिलने के बाद आप जगत का करेंगे भी क्या ?

तो शंकर जी पार्वती जी से कह रहे हैं की हे भवानी सुनो ! हनुमान जी की इस प्रकार से परम सरल वाणी सुनकर प्रभु बोले एवमस्तु ! हे उमा ! जिन्होंने भी श्री रामजी का स्वभाव जान लिया उन सबको भजन छोड़कर कुछ भाता ही नहीं और स्वामी तथा सेवक का यह अति सुंदर संवाद जिसके भी ह्रदय में समा गया, अंकित हो गया वो ही श्री रघुबीर जी के चरणों की भक्ति पा गया और धन्य हो गया | श्री रघुबीर जी के ऐसे वचन सुनकर वानरदल ने जयकार किया, “ सुख के धाम, कृपालु श्री रामचन्द्र जी की जय हो, जय हो, जय हो |

सियावर रामचन्द्र जी की जय ||

श्री राम लक्ष्मण जानकी, जय बोलो हनुमान की ||

अब श्री राम जी की कृपा पाकर वानर दल ने प्रस्थान किया, और उनके प्रस्थान से दसों दिशाएँ डोल उठीं, सबके मन उत्साहित थे और इसी समय सुन्दर शगुन होने लगे और जानकी जी के बाएँ अंग फड़कने लगे |

जासु सकल मंगलमय कीती, तासु पयान सगुन यह नीती |

जिनके कर्म श्रेष्ठ होते हैं, जिनकी कीर्ति सब मंगलों से पूर्ण है उनके प्रस्थान के समय शकुन होना यह नीति है अर्थात कार्य में सफलता मिलनी ही मिलनी है | और इस प्रकार उत्साहित असंख्य वानर योद्धा जिनमे से कुछ आकाश मार्ग से चलने में भी सक्षम थे और कुछ अत्यंत विशाल और बलवान थे श्री राम के नेतृत्व में चलते – दौड़ते सागर के निकट पहुँच गए, और जहाँ – तहाँ फल फूल इत्यादि खाने लग गए | उन्हें देख दसों दिशाएँ हर्षित हो उठीं, नाग – सुर – मुनि – गन्धर्व – किन्नर और मानव आदि ने जान लिया कि अब हमारे दुखों का अंत हुआ समझो |

ये खबर सुनकर रानी मंदोदरी ने रावण को समझाने का बड़ा प्रयास किया और ये भी कहा कि जब तक आप सीताजी को प्रभु के पास वापस आदर सहित नहीं पहुँचा देते तब तक भगवान शंकर भी आपके सहायक नहीं होंगे पर रावण बात हंसी में टालकर चला गया वहाँ सभा में सबने रावण की हाँ में हाँ मिलाई सिवाय विभीषण जी के और इसका परिणाम ये हुआ कि बेचारे लंका से बेदखल कर दिए गए | रावन को समझाते हुए उन्होंने बड़ी अच्छी बात कही थी,

सचिव, बैद, गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस |

राज, धर्म, तन तीनि कर होइ बेगहीं नास ||

सचिव, वैद्य और गुरु ये तीन जो अप्रसन्नता के भय से या लाभ की आशा से हित की बात न कहकर प्रिय बोलते हैं तो क्रमशः राज्य, शरीर और धर्म इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है | बड़ी बात है और आज के युग में सर्वथा प्रासंगिक है ये युग जो चाटुकारों से भरा पड़ा है, हर कोई बड़े आदमी के सामने मीठा बोलता है चाहें सत्य इससे बिल्कुल विपरीत क्यों न हो और इस सब के कारण धरती की आज क्या दुर्दशा हुई है ये बताने की आवश्यकता नहीं है, इसका फल उस समय भी सामान्य जन को भुगतना पड़ा था और आज भी भुगतना पड़ रहा है, तब भी धरती त्राहिमाम कर रही थी और आज भी कर रही है कैसे ?

पाप या पतन क्या है ? अत्याचार क्या है और क्यों भगवान को अवतार लेना पड़ता है ?

रावण के समय एक अलग समूह था जिसने लगभग सारी पृथ्वी को जीता हुआ था उनका शासन था कुछ नियम थे जिन्हें वे उचित मानते थे पर संतों और आम जनों का मत उनसे भिन्य था | मानव मांस खाना, यज्ञ को भंग करना, साधु – संतों को दुःख देना उन्हें मारना, और इसके अलावा प्रकृति के नियमों के सर्वथा विपरीत कार्य करना ताकि वो समूह आनंदित रह सके, भोग विलास कर सके और राज कर सके | भोग विलास और वैभव इतना कि पूरी की पूरी नगरी ही सोने के बनवा डाली, जब चाहें जहाँ आक्रमण कर दें किसी को भी बंदी बना लें और सबको अपनी संस्कृति अपनाने को विवश कर दें या न मानने पर मौत के घाट उतार दें और इसीलिए राक्षस इतनी तीव्रता से अपने शासन का विस्तार कर पाए और अपनी संस्कृति फैला पाए उनका एक ही नारा था मेरी बात मानो, हमारे जैसे बनो भगवान नहीं हम रक्षक हैं |

वयं रक्षामि |

एक तरह से लोगों की स्वतंत्रता का हनन हो गया था, लोग डरे हुए थे, लाचार और विवश थे | इसके अलावा भी राक्षस अनेकों प्रकार की तामसी विद्याओं को सिद्ध करते रहते थे जिन्हें करने से प्रकृति की बहुत हानि होती थी, ऋषि – मुनि जहाँ एक और हवन कर पर्यावरण को शुद्ध करते थे वहीँ ये अपवित्र और ऋषि – मुनियों को भी बड़ा नुकसान पहुँचाते थे | पृथ्वी में किसी राजा के पास इतना बल या सामर्थ्य नहीं था कि रावण और राक्षसों को रोक सके | ऋषि – मुनियों के पास तप की शक्ति थी पर वे योद्धा नहीं थे दूसरे वे इस शक्ति का उपयोग जन कल्याण के लिए करते थे और जो योद्धा थे उनके पास न इतना आत्म बल और न तप की शक्ति |

पर एक महामानव थे, जो चौदह वर्ष तक वन में तपस्वी की भांति रहे और जिनका आत्म बल अत्यंत उच्चकोटि का था और उनके साथ लक्ष्मण जी और हनुमान जी जैसे दूसरे महामानव और बहुत से कुछ इसी प्रकार के वानर योद्धा भी थे, उनके पास धर्म की भी शक्ति थी और ये तीनों ही शक्तियाँ रावण की शक्ति से बहुत बड़ी थीं और उस पर बहुत भारी पड़ीं |

क्या आज प्रकृति पुनः त्राहिमाम नहीं कर रही है ? और आज राक्षस गण कौन हैं ? तब वे समूह में मुख्यतः धरती के एक किनारे पर बसे थे, अलग रहते थे और अलग से पहचान में आते थे | उनकी संस्कृति आमोद – प्रमोद वाली थी और पूर्णतः भोग – विलास को समर्पित थी | आज की संस्कृति भी भोग – विलास को समर्पित हो चुकी है, प्रकृति का जबर्दस्त दोहन हो रहा है, नदियाँ सूख गयी हैं, वायु और जल प्रदूषित हो चुके हैं, अन्न दूषित हो गया है, ग्लेशिअर पिघल रहे हैं और गर्मी बेइंतिहा बढ़ रही है और मानव और प्रकृति त्राहिमाम कर रहे हैं, और इन सब के मूल में कहीं न कहीं वासना जिसे लालच भी कहा जा सकता है, है | आज मानव अपने ही क्रिया - कलापों के कारण पीड़ित है, तब कम से कम राक्षस तो अपने क्रिया – कलापों के कारण पीड़ित नहीं थे पर आज का मानव तो और भी गया गुजरा हो गया है जो स्वयं ही पीड़ित हो गया है पर फिर भी न समझता है और न सुधरता | राक्षसों के मध्य विभीषण जैसे एक संत रहते थे जो राम भक्त थे और युद्ध में जीवित बचे थे, आज भी जब हम विनाश के मुहाने पर खड़े हैं और राक्षसों से भी बुरा व्यवहार कर रहे हैं तो पृथ्वी और मानवता की रक्षा के लिए भगवान् का अवतार अवश्यम्भावी है और उनको ही सद्गति प्राप्त होगी जो प्रभु भजन करेंगे, सदाचरण करेंगे, अपने कार्यों को परखते रहेंगे और भोग – विषयों के पीछे न भागकर संतुलित आचरण करेंगे, और ऐसे लोग आज ऐसे ही कम हैं जैसे दातों के मध्य जीभ, राक्षसों के बीच एक विभीषण ही थे |

दीनदयाल बिरिदु संभारी हरहु नाथ मम संकट भारी ||

रावण द्वारा अपमानित होने पर विभीषण प्रभु श्री राम के पास पहुंचे और तब सुग्रीव जब उन्हें बाँधने की बात कहते हैं तो प्रभु कहते हैं :

सखा नीति तुम नीकि बिचारी, मम पन शरणागत भय हारी |

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना, शरणागत बच्छल भगवाना ||

जिसका वर्णन आपने बहुत प्रारंभ में ही पढ़ा होगा | श्री राम विभीषण की सलाह पर सागर से मार्ग मांगते हैं और तीन दिवस तक अन्न जल का त्याग कर प्रार्थना करते रहते हैं | श्री राम की प्रायः हर बात पर साथ देने वाले लक्ष्मण जी को ये बात अच्छी नहीं लगी और बोले :

नाथ दैव कर कवन भरोसा, सोषय सिंधु करिअ मन रोसा |

कादर मन कहु एक अधारा, दैव दैव आलसी पुकारा ||

अर्थात आप समर्थ हैं, मन में क्रोध कर सिंधु को सुखा दीजिये | दैव का कौन भरोसा यह तो कायर के मन का एक आधार है और आलसी लोग ही दैव – दैव पुकारा करते हैं | पर श्री राम ने पहले साधु वाद अपनाया और जब उससे काम नहीं बना तो फिर समुद्र को डराने के लिए अग्नि बाण का संधान किया, उसे चलाया नहीं और समुद्र हाथ जोड़कर उपस्थित हुआ |

अतएव शिक्षा यही है कि सर्व समर्थ होने पर भी पहले साधुवाद अपनाना चाहिए, विनय से कार्य बनाने का प्रयास करना चाहिए और फिर यदि कोई बाधा आए तो लोकमत के अनुसार पौरुष दिखलाना चाहिए |

यहाँ पर एक और बात आती है की समुद्र स्वाभाव से जड़ है पर दण्ड के भय से अपनी मर्यादा त्यागकर प्रभु के सन्मुख उपस्थित होता है और बतलाता है की नल और नील की सहायता से सेतु का निर्माण संभव होगा | इसी प्रकार बहुत से लोग बहुत सी साधना में लीन रहते हैं पर अगर धर्मानुसार कार्य संपादन के लिए आवश्यकता पड़े तो उन्हें हमें क्या का विचार छोड़ते हुए जनमानस के कल्याण के लिए अवश्य सामने आना चाहिए |

प्रभु स्वाभाव से ही दयालु हैं और उन्होंने समुद्र को क्षमा कर दिया, सिन्धु अपने भवन को चला और नल – नील की सहायता से प्रभु के आशीर्वाद से वानरों ने समुद्र में सेतु का निर्माण पूरा किया | नल नील को आशीर्वाद था पर वे अपने गुणों का वर्णन स्वयं नहीं करते थे इसी प्रकार हमें भी जबर्दस्ती अपने गुण नहीं बखारने चाहिए |

अब ऐसे दयालु प्रभु के गुण समूहों का कहाँ तक बखान किया जाये और आखिर कौन बखान कर सकता है, वैसे भी हमारी बुद्धि अल्प है और समझ सीमित और उनके गुण अनन्त हैं | हमारे लिए तो यही उपयुक्त है की हम उनके नाम का जाप करते रहें और उनके गुण समूहों का ध्यान करते रहें जिस प्रकार हनुमान जी करते रहते हैं |

हम सभी को उनका आशीर्वाद प्राप्त होता रहे |

इस त्रुटिपूर्ण विवरण और वर्णन के लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ |

सुन्दरकाण्ड की कथा यहीं तक है जैसे ही सिन्धु वापस जाता है और प्रभु को उसका मत भाता है ये कथा समाप्त हो जाती है और अगले कांड का प्रारंभ होता है |

निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ |

यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गायऊ ||

सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना |

तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना ||

सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान |

सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान ||

!! हर हर महादेव !!

||जय श्री राम ||

||ॐ नमः शिवाय ||



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