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खैर वो पोनी वाला हमारे साथ ही था, पर हमें समझ नहीं आ रहा था, कि अब जब साढ़े पाँच बज चुके हैं और थोड़ी ही देर में अँधेरा हो जायेगा तो ऐसे में ये हमें क्या घुमाएगा ? पर और करते भी क्या तो उसके साथ हो लिए | थोड़ी दूर चलने के बाद वापस लिडर नदी पर बने पुल को पार कर और मुख्य मार्ग पर आकर हमने चढ़ाई चालू की | अब हम पोनी पर थे, और ये मेरा पहला अनुभव था | उसने बताया कि जब ये ऊपर चढ़े तो आप को भी इसके साथ चढ़ाई की दिशा में झुकना होता है, जिससे इसको कम श्रम होता है और नीचे आने पर उतराई की विपरीत दिशा में पीछे झुकना होता है, जिससे ये फिसले नहीं | पहले कुछ मिनट तो बड़ी तकलीफ में बीते, बैलेंस ही नहीं बन रहा था और लग रहा था कि उतर जाएँ पर पोनी वाला बोला कि थोड़ी देर में सब ठीक हो जायेगा |

खैर कुछ – कुछ तो ठीक हुआ, अब संतुलन बेहतर था पर साथ ही पोनी पर दया भी आ रही थी और ये बिना बताये ही चढ़ाई चढ़ती जा रही थी | बीच – बीच में पोनी वाला कहीं गायब हो जाता था पर इसे रास्ता पता था | ये देखकर मैं और पांडे जी थोड़ा हतप्रभ हुए |

हमें बैसरन पहुंचना था, जो पहलगाम से चार – पांच किमी की दूरी पर था | चढ़ाई खड़ी थी और जंगलों के बीच से जाती थी | अब हम अधिक संतुलित अनुभव कर रहे थे और इसी तरह एक घंटे की चढ़ाई के बाद हम एक ऊंचाई पर स्थित पर समतल जगह जो बहुत खुली सी और तीन ओर से पर्वतों से घिरी हुई वैली थी, वहाँ पहुँच गए | ये बैसरन पार्क  है; बेइंतिहा ही सुन्दर | मैंने तो ऐसा बस फिल्मों में ही देखा था | दूर तक फैली घास, चारों ओर से इस वैली को घेरे देवदार और चीड़, और हर ओर हिमालय की ऊँची चोटियाँ जिनमें कुछ पर अभी भी बर्फ शेष थी | पांडेजी का पता नहीं पर मैं तो जैसे खो गया था |

शायद आपने हिमांचल में खजिआर सुना या देखा होगा, बस उसके जैसी ही या उससे भी खूबसूरत जगह है ये | पार्क की एंट्री टिकेट शायद 5 रूपए रही होगी और ये पूरा ही दिन बिताने वाला स्थान है | हमारे लिए तो ये पूरी ही तरह से जैसे एक उपहार था वी अनुपम उपहार जो प्रकृति ने हमें बेलगाँव पहुँचते ही दिया, बस कमी इतनी रह गयी कि बस एक घंटे से भी कम  था हमारे पास | यहाँ पहुँचते शायद साढ़े छह बज गए थे, पर पश्चिम में होने के कारण और ऊँचाई के कारण यहाँ सूर्य की रश्मियाँ गर्मी के समय आठ बजे तक रहती हैं और फिर इसके बाद ही अँधेरा होता है, तो आप साढ़े सात बजे तक बिना लाइट के घूम सकते हैं |

प्रकृति के इस अनुपम सौन्दर्य का जितना पान करें वो कम है, भागदौड़ भरी जिंदगी से थककर और ऊबकर हम ऐसे तीर्थ और प्राकृतिक स्थलों पर आते हैं और यहाँ भी जल्दी में रहते हैं | ये यात्राएँ ऐसी हैं शायद जीवन में एक – दो बार ही मौका मिले पर पता नहीं क्यों हम समय नहीं दे पाते, या फिर हम इतना ही पाने के लायक हैं क्योंकि हिमालय में अधिक समय बड़े भाग्य से मिलता है |

और हमारे ऐसे कर्म कहाँ, तो सवा सात बजते हम वापस अपनी पोनी पर सवार हुए और इस बार पीछे की ओर झुके | बिना मालिक के बताये ये अपने – आप उसी रस्ते से नीचे उतर आयीं | बैसरन पहुँचने के लिए सड़क मार्ग भी है जो कच्चा है पर अच्छा है और कारें यहाँ तक आती हैं | ये अपेक्षाकृत लम्बा है और पोनी का मार्ग छोटा |

इस प्रकार ये कुछ अद्भुत दृश्य अपनी झोली में भरकर हम आठ बजे तक वापस बैलगाँव पहुँच गए | अब थकान महसूस हो रही थी और थोड़ी देर यहाँ सड़क किनारे मार्केट में घूमने के बाद हम वापस थोड़ी चढ़ाई चढ़कर होटल पहुँच गए | थके पैरों से इतनी ही चढ़ाई बहुत लग रही थी, आगे की यात्रा सोचकर हम दोनों एक दूसरे का चेहरा देख रहे थे |

पहलगाम की औसत ऊंचाई 1500 से 2750 मीटर है | होटल नीचे था वहीँ बैसरन मेरे अनुमान से 2700 से 2800 मीटर या और भी अधिक ऊंचाई पर होगा और एक दिन में सीधे इतनी ऊँचाई गेन करना ट्रैकिंग की दृष्टि से बिल्कुल भी अच्छा नहीं माना जाता वो भी मेरे जैसे पहली बार के ट्रेकर के लिए जो ऋषिकेश के आगे ही नहीं बढ़ा था और शायद बचपन में की गयी टनकपुर के आगे स्थित माता पूर्णागिरी की यात्रा में 1500 मीटर की ऊंचाई रही होगी और तब पैदल यात्राएं होती थीं और लोग दो से तीन दिन में पहुँचते थे |

होटल पहुँचने पर अचानक ठण्ड लगने लगी और मैं एक पेरासिटामोल खाकर लेट गया, कमरे में ही खाना मंगा लिया और गर्म – गर्म दाल – रोटी खाकर कुछ ठण्ड दूर हुई और तब तक दावा ने भी अपना काम किया और हम दस बजे तक सो गए | पता नहीं ये अचानक इतनी ऊँचाई का प्रभाव था, या लगातार की थकान, या दिल्ली में चिलचिलाती धूप में घूमने का, या ठण्ड का, वैसे वास्तव में ठण्ड अधिक नहीं थी, जो तबियत ख़राब हुई | सुबह पांच बजे उठे और पांडेजी सीधे बाथरूम में घुस गए, गीजर था तो उन्होंने मस्त नहाया | अभी मुझे भी सही लग रहा था, ठण्ड अब नहीं लग रही थी और कुछ आत्मविश्वास भी बढ़ा था पर सावधानी बरतते हुए मैंने नहीं नहाया |

इतने दिनों से मन था, इस यात्रा पर आने का और सोचा यही था कि सुबह नहा कर, साफ़ कपडे पहनकर और अच्छे मन से यात्रा की शुरुआत करूँगा, पर आपके सोचने से क्या होता है ?

होइहि सोई जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा ||

जो कपड़े दिल्ली से पहने चले थे, जिनमें बैसरन घूमे, वही पहने सोये और उन्हीं में यात्रा आरंभ कर दी | थोड़ा डर तो था ही, आगे तापमान कितना होगा वो भी पता नहीं, और कठिन यात्रा, तो ऊपर से एक रेन जैकेट और डाली और मफलर अलग से लपेट लिया | कुल मिलाकर गंदे ही प्रस्थान किया, याद नहीं पड़ता कि ब्रश किया या नहीं |

वहीँ पांडेजी साफ़ कपड़ों में नहाये एकदम चमक रहे थे | ॐ नमः शिवाय बोलकर हमने यात्रा आरंभ की | पहले यहाँ से चंदनवाड़ी तक पैदल यात्रा होती थी, पर अब सड़क बनने से जीप या मिनी बस से जाया जा सकता है | साढ़े पांच बजे होंगे और अब उजाला होना शुरू हुआ था | जहाँ उत्तर भारत में इस समय पौने पांच से ही उजाला हो जाता है वहीं यहाँ इतने उत्तर पश्चिम में होने के कारण आधे घंटे के आसपास का अंतर है |

सड़क पर हम आकर जीप इत्यादि ढूँढने लग गए, दो – तीन लोग जो होटल में रुके थे, वे भी हमारे साथ थे | पीछे दो – तीन किमी पहले नुनवान कैंप साईट है अधिकतर गाड़ियाँ वहीँ से भरी आ रही थीं | थोड़ी देर में एक खाली जीप आई और उसे फुल होने में दस – पंद्रह मिनट और लगे और तब हमारी यात्रा आरंभ हुई |

रौशनी अब ठीक – ठाक हो गयी थी, और बेहद ही सुन्दर पहलगाम वैली के हमें दर्शन होने लग गए थे | लिडर अठखेलियाँ करती हुई हमारे साथ चल रही थी, बेहद निर्मल, स्वच्छ और नीले जल वाली इसकी धारा न अधिक तीव्र थी, न अधिक धीरी, आप इसके तट पर आराम से नहा सकते हैं और ये अधिक चौड़ी भी नहीं है, जैसी एक पहाड़ी नदी की आप कल्पना करते हैं, ये बिल्कुल वैसी ही है |

थोड़ी देर में जीप एक ओपन वैली के पास से गुजरी, ये इतनी आकर्षक लग रही थी कि लगता था, कुछ देर उतरकर यहीं ठहर जाऊं | गहरी हरी घास, देवदार, चरते हुए घोड़े, और दो तीन छोटी – छोटी नीली जलधाराएँ जैसे प्रकृति का सारा अनुपम सौन्दर्य यहीं ठहर गया हो और हम थे कि ठहर ही नहीं रहे | ड्राईवर ने बताया कि ये बेताब वैली है, यहाँ इस फिल्म की शूटिंग हुई थी | फिल्म के आकर्षक दृश्य एक बार आँखों के सामने से गुजर गए |

जीवन में किस बात की जल्दी रहती है, ये तो पता नहीं पर इसके चक्कर में बहुत से सुहावने ठहराव या पल बस ऐसे ही पीछे छूट जाते हैं | ये आनंद के छण, शांति और सुकून के और ऊर्जा के छणों को पीछे छोड़ती जीवन की गाड़ी यूँ ही सरपट भागती अपूर्णता को प्राप्त होती रहती है | जैसे लगातार चलती ट्रेन को भी स्टेशन पर रुकना पड़ता है, जिससे ट्रेन और यात्रिओं दोनों को विश्राम मिलता है, वैसे ही जीवन को भी इन स्थिरता और उर्जा के छणों से पूर्ण करना पड़ता है, जिससे तन और मन दोनों को विश्राम और शांति मिलती है | ये यात्राएँ हमें ऐसा ही अवसर प्रदान करती हैं, बस थोड़ी कसक रह जाती है तो वो है समय की | तो हमसे जो भूल हुई उसे आप न कीजिए, थोड़ा समय और ले कर आयें पता नहीं ये प्रकृति फिर कब मिले |

यहाँ इसके अतिरिक्त भी बहुत से महत्त्व के स्थल हैं; जैसे पुरातन मामल शिव मंदिर, जिसे ममलेश्वर भही कहते हैं | इसका इतिहास हजारों वर्ष पहले का है और इसके नीचे से एक बेहद निर्मल जल की धारा भी बहती है | हमें तो इस मंदिर के बारे में पता ही नहीं चला अब जब लिखने बैठा हूँ तो सोचता हूँ कि पहले क्यों नहीं पता किया | शायद इसी चाह में एक बार यात्रा और हो सके, वैसे भी कुछ दिनों से मन वापस इस यात्रा में जाने का कर रहा है | ये भी पता चला कि लिडर नदी का संस्कृत नाम लम्बोदरी है, पता नहीं इसका लम्बोदर गणेश से कुछ तात्पर्य है क्या ? ये सोनमर्ग के पास एक ग्लेशियर से निकलती है और बैलगाँव से पहले ये 30 किमी की यात्रा कर चुकी होती है और इसके पास ही ये शेषनाग झील से निकली ईस्ट लिडर में मिलती है |

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lost..in Himalayas....

 

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